नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
75. दानवेन्द्र मय-अजगर उद्धार
श्रीकृष्णचन्द्र ने अर्घ्य, पाद्य, आचमन, सलिल स्नान के अनन्तर दुग्ध पात्र उठाया और महर्षियों के श्रुति स्वर गूँजने लगे। मैंने पूजाएँ की हैं- अनेक सुरों-असुरों की, स्वयं सृष्टिकर्त्ता की पूजा प्रत्यक्ष रहकर देखी है; किंतु यह सात्त्विक वैभव, यह भगवान नीलकण्ठ का श्रीविग्रह में-से स्पष्ट झलकता पुलक प्रपूरित शतचन्द्रोज्वल श्रीअंग- यह अर्चा स्वीकार की त्रिलोचन की त्वरा- यह अलभ्य ही रही है अन्यत्र। सहस्र-सहस्र घट दुग्ध, दधि, घृत, मधु और शर्करा स्नान, पञ्चामृत स्नान- सविधि महाराजोपचार-पूजन! राम-श्याम ने और इनके सखाओं ने पूजन कर लिया तब गोपों द्वारा पूजन प्रारम्भ हुआ। प्रदोष पूजन, मध्य रात्रि, तृतीय प्रहर और चतुर्थ प्रहर का पूजन- मुझे आज इन सबके मध्य में अत्यन्त अल्प समय मिला अपने पूजन के लिये; किंतु आज की मेरी संक्षिप्त अर्चाएँ जीवन की सम्पूर्ण सविधि सविस्तार अर्चाओं की अपेक्षा अत्यधिक महान है, यह मैं कभी भूल नहीं सकता। चतुर्थ-पूजन समाप्त करके गोप प्रागंण में आ गये। बालक भी बाहर आये। सब श्रान्त थे, उपोषित थे। उत्साहाधिक्य में प्रभात से अब तक पूजन-सामग्री-संग्रह करने में, देवालय की स्वच्छता में, पूजन में पर्याप्त श्रान्त हो गये थे। प्रांगण में अपनी कमरियाँ डालकर लेटे होंगे- सबको तन्द्रा आ जाना स्वाभाविक था। मैं मार ही देता उसे यदि पूजन में लगा न होता। मेरी दृष्टि बचाकर वह आ नहीं सकता था; किंतु सब गोपों के पूजन-समाप्त करने पर मुझे समय मिला था। मैं शिवार्चन में संलग्न था। अरण्य से अन्धकार में कोई महासर्प सरकता आ गया था और उसने श्रीव्रजराज के दोनों चरण मुख में ले लिये थे। वह उन्हें निगलता जा रहा था धीरे-धीरे। श्रीनन्दराय की कातर ध्वनि गूँजी- 'कृष्ण! वत्स श्रीकृष्ण! यह अजगर मुझे निगल रहा है। तुम सब शीघ्र भागो यहाँ से। इसके साथ इसकी संगिनी भी हो सकती है। राम! अपने अनुज और सखाओं को लेकर शीघ्र छकड़े पर जाओ!' गोपों ने यह पुकार सुनी। सबने जलते उल्मुक उठाये। शीत-निवारण के लिए प्रांगण में पहिले ही काष्ठ सुलगा दिये गये थे। उन जलते अलातों से निरन्तर पीछे जाने पर भी अजगर ने व्रजराज को निगलना बन्द नहीं किया। वह लगभग उरु तक उनको मुख में पहुँचा चुका था। जलते उल्मुक लगने से वह अपना शरीर ऐंठ रहा था। पूँछ पटक रहा था। उसका शरीर स्थान-स्थान पर जल गया था; किंतु उसके मुख में श्रीनन्दराय थे। मुख पर उल्मुकों का आघात सम्भव नहीं रहा था। 'श्रीकृष्ण! राम! व्रजराज को महासर्प ने पकड़ लिया है!' सभी गोप पुकारने लगे। 'बालकों को बचाओ!' व्रजराज की पुकार गोप सुन नहीं पा रहे थे। वे कह रहे थे- 'नीलमणि को राम के साथ छकड़े पर पहुँचाओ।' लेकिन गोप चिल्ला रहे थे। व्याकुल होकर सर्प पर प्रहार करते जा रहे थे। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज