नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
68. जलाधिप वरुण-दिव्य-दर्शन
'नीलमणि! व्रजेश्वरी ने दोनों भुजाएँ फैला दीं। वे इतनी शिथिल हो गयी थीं कि दो पद भी दौड़ नहीं सकती थीं। स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र हँसते दौड़ते माता के वक्ष से लिपट गये आाकर। गोपों ने श्रीनन्दराय को अंकमाल दी। 'भैया! आपके ये वस्त्र? ये तो भीगे हैं। और ये भुक्ताभरण? ये दिव्य पुष्प माला के?' सन्नन्द ने समीप आकर बड़े भाई का चरण स्पर्श किया और चकित देखने लगे। 'अपना मुकुन्द भी अपादमस्तक ऐसे ही अनदेखे, अनसुने मुक्ताओं से सजा आया है।' उपनन्दजी मेरे दिये वस्त्र स्पर्श करके देख रहे थे। उन्होंने पूछा- 'नन्द! यह सब कहाँ मिला तुम्हें पानी के भीतर?' 'मेरी समझ में कुछ अधिक नहीं आया। मैं यमुना में उतरा तो कोई जलीय दानव मुझे पकड़कर कहीं ले गया, जो सुना है ऋषि-मुनिष्यों से, उसके अनुसार वह वरुणलोक होना चाहिये; क्योंकि उस आलोकमय प्रदेश के अधिपति प्रचण्डकाय श्यामवर्ण ऐसे थे मानो उर्मियों का वस्त्र पहिने हों और मौक्तिकाभरण-भूषित थे।' व्रजराज ने मेरे सम्बन्ध में ठीक अनुमान कर लिया था- 'वे बहुत विनम्र हैं। मुझ मनुष्य को भी उन्होंने प्रणाम किया। मेरा सत्कार किया।' 'आप आये कैसे?' सन्नन्द ने पूछा। 'अपना नीलसुन्दर शीघ्र पहुँच गया। यह तो जैसे सम्राट हो और वरुणदेव बहुत क्षुद्र सेवक हों, इस प्रकार इसके सम्मुख हाथ जोड़कर काँपते हुए वे इसकी स्तुति कर रहे थे। इसने उनकी स्तुति, अर्चा सब स्वीकार की। उनको कुछ आशीर्वाद-सा देकर मुझे लेकर आ गया।' 'वरुण लोकपाल हैं, वे कन्हाई की स्तुति करते हैं?' व्रजराज ने मुझे लगा कि अपनी सहज उदारता वश मेरे लोक के वैभव का वर्णन बहुत बढ़कर ही किया, अन्यथा वरुण का वैभव उनके इस व्रज के सम्मुख तो किसी गणना में नहीं; किंतु उनका वर्णन सुनकर चकित गोप में-से एक ने कहा- 'तब अपना कन्हाई कौन होगा?' 'यह साक्षात नारायण है, यह भी कुछ पूछने की बात है!' एक वृद्ध गोप का स्पष्ट स्वर सुनायी पड़ा- 'कितनी बार तो यह सत्य हम सब देख चुके।' 'अपना दिव्य धाम कन्हाई हमें दिखावेगा?' बहुत उत्सुकता, अभिलाषा-भरा स्वर था उस गोप का। मैं केवल यह देख सका कि जननी के अंक में बैठे श्रीव्रजराजकुमार के नेत्रों में एक ज्योति चमक गयी। एक साथ सब गोप-गोपियाँ ऐसे स्पन्दनहीन हो गये, जिसके सम्बन्ध में देवता होने पर भी मैं अनुमान से केवल एक शब्द दे सकता हूँ- 'निर्विकल्प समाधि!' |
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