नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
60. देवर्षि नारद-धेनुक-ध्वंस
बालकों ने तालियाँ बजायीं। पशुओं को हाँक दिया इस वन में। इतनी बढ़ी, वृक्षों के मध्य होने से मृदुल घास मिली तो पशु चरने लग गये। बालकों ने दौड़कर दाऊ-कन्हाई को अंकमाल दी। दोनों के करों को भली प्रकार देखा-सहलाया। 'तू ऐसे कैसे खएगा? श्याम ने एक ताड़ फल उठाकर अधरों से लगाया तो मुझे हँसी आ गयी। भद्र समीप दौड़ आया। इसने एक छोटी लकड़ी ढूँढ़ी और ताड़ के छिलके के भीतर बलपूर्वक प्रविष्ट करके निकाल दी समीप। लकड़ी घुमाने से केशरिया गूदा नवनीत के समान निकल आया- 'ले, इसे खा।' 'मैं अपने आप निकालूँगा।' कन्हाई ने फल ले लिया। अब इसे निकालना आ गया है तो स्वयं क्यों यह कौतुक न कर देखे। 'दादा तू ले!' दाऊ को सब अपने हाथ से ही यह ताड़ का गूदा खिलाना चाहते हैं। 'सब गुठलियाँ समेट कर रख दो! वरुथप ने समझाया- 'ये अंकुरित होंगी तब हम इनको काटकर भीतर की मधुर गुठली खायँगे।' 'तू इसे काट दे!' कन्हाई को इतना धैर्य कहाँ कि अंकुरित होने की प्रतिक्षा करे। 'अभी यह किसी काम की नहीं होगी।' वरुथप ने गुठली काटकर दे दी। 'दो हैं इसमें। कितनी उजली हैं। चिकनी हैं।' लेकिन कृष्ण ने मुख में लगाया और थूक कर फेंक दी गुठली तो सखा हँसने लगे। स्वादहीन, बहुत चिकनी यह गुठली श्याम कैसे खा सकता था। 'तू नहीं खायगा?' मधुमंगल को चुपचाप खड़े देखकर मणिभद्र ने एक ताड़ देने को उठाया। 'ये अपवित्र फल हैं।' मधुमंगल ने मुख बनाया- 'इसे द्विजाति नहीं खाते। तुम सबों को अब स्नान करके गोमूत्र पीकर शुद्ध होना पड़ेगा।' बालकों का विनोद चल रहा है। |
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