नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
55. ब्रह्मा-विधि-व्यामोह
इतना पुण्यात्मा, सौभाग्यशाली मैं नहीं था कि मुझे व्रज की दिव्य भूमि में किसी भी रूप में स्थान दिया जा सकता। केवल संकेत मिला मुझे और मैं सुमेरु की गुफा में-से बालकों और बछड़ों को उठा लिया। बछड़ों को मैंने वन में श्रीनन्दनन्दन के समीप छोड़ दिया। बालकों को पुलिन पर ले गया तो चौंका। भगवती योगमाया ने उस दिन के वे छीके, भोजन, पत्र-पाषाणादि पात्र वैसे ही सुरक्षित कर दिये थे। भूमि पर पड़े कण तक ज्यों-के-त्यों थे। मैंने बालकों को उन्हीं स्थानों पर बैठा दिया, जहाँ वे पहिले बैठे थे। मुझे ब्रह्मलोक जाने का संकेत मिला। समझ गया कि अब वहाँ मेरा प्रवेश अवरुद्ध नहीं होगा। आज्ञा को अस्वीकार करने की धृष्टता नहीं कर सकता था। व्योम में मैंने अपने वाहन को पर्याप्त ऊपर ले जाकर स्थिर किया। देखा- बछड़ों को लिये श्यामसुन्दर अग्रज के साथ चले आ रहे हैं। बालक प्रसन्न होकर बोले- 'अच्छा, दादा आ गया? कनूँ, तू बहुत शीघ्र लौटा। हमने अब तक एक ग्रास भी नहीं खाया है।' अब मण्डल के मध्य में गौर-श्याम दोनों विराजमान हो गये। वही भोजन-क्रीड़ा। सबने यमुना में मुख-कर धोये। सायं व्रज लौटते अघासुर का शरीर दिखलाया श्रीकृष्ण ने सखाओं को। सुबल ने स्पर्श करके कहा- 'यह तो सूख गया। आज धूप तीव्र थी। अब यह अपने छिपने की अच्छी गुफा हो गयी।' |
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