नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
6. माता रोहिणी-दाऊ का जन्म
मेरी अपनी दुर्बलता है कि मैं स्वभाव से शासिका हूँ। स्वामी के घर में भी- जब वह घर वैभव -सम्पन्न था, समस्त व्यवस्था का सञ्चालन मैं ही करती थी। सेवक-सेविकाएँ और सब सपत्नियाँ केवल मेरा ओदश पालन करत थे। अब यहाँ गोकुल आने पर भी मैंने यही प्रारम्भ कर दिया है। व्रजपति तो अत्यन्त विनम्र हैं ही, इतनी बड़ी वय की होकर भी यशोदा अनुजा हो गयी हैं। इन्होंने सब व्यवस्था मुझ पर छोड़ दी है और अपने को मेरी आदेश-पालिका बना लिया है। मेरे बहुत मना करने पर भी व्रजपति ने उसी दिन गोकुल में आने का महोत्सव मना लिया। गोपों और गोपियों ने मुझे उपहार अर्पित किये। यह एक प्रकार से अच्छा भी हुआ; क्योंकि इस प्रकार मैं प्राय: सबसे परिचित हो गयी। उस एक ही दिन में मैं गोकुल में ऐसी हो गयी जैसे जन्म-जन्म से यहीं की-इसी परिवार की होऊँ। किसी एक ने भी तो मुझे अपरिचित, मथुरा से विपत्ति के कारण आगता नहीं माना। सब मेरे आगमन को अहोभाग्य-शुभशकुन मान रहे थे और मुझे भी सब परिचित स्वजन ही लग रहे। अपरिचय-जन्य संकोच मुझे किसी के भी सामने नहीं हुआ। भगवती पूर्णमासी पधारीं तो मैं जैसे ही उनके पदों में प्रणत होकर बैठी, उनका मधुमंगल आकर गोद में ही बैठ गया। वह मेरे मुख की ओर मुख करके बोला- 'माँ! हमारा दादा आ रहा है न? तुम उसे लाओगी यहाँ!' यह भोला, सुन्दर बालक; किंतु लज्जा से मैंने सिर झुका लिया। धीरे से इससे कहा- 'बड़े तो तुम हो। जो आवेगा, वह तुम्हारा छोटा भैया होगा। तुम उसके दादा हो।' 'नहीं माँ!' यह कहने लगा- 'हम सब सखाओं का वही दादा है। वह आ रहा है तो मेरे सब सखा आवेंगे।' 'मैया!' मेरी गोद से उठकर वह यशोदा की गोद में जा बैठा- 'दादा आ रहा है! मेरा सखा भी आवेगा।' बहुत भोला, बहुत चञ्चल, बहुत बोलनेवाला बड़ा प्यारा बालक है मधुमंगल। यह तो मुझे पीछे पता लगा कि यह जन्म-सिद्ध है और महर्षि शाण्डिल्य भी इसका सम्मान करते हैं; किंतु यहाँ गोकुल में तो हम में सबको ही यह सरल, विनोदी बालक ही लगता है। |
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