नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
54. कालिन्दी-वन-भोजन
'मैं अच्छे किसलय लाऊँ?' तोक ने पूछा। अब किसी को पुष्प, किसी को गुञ्जा, किसी को कोई वन-धातु लाने की सूझी है। 'मुझे तो भूख लगी है।' ये उदार चक्रचूड़ामणि, इन्हें कैसी भूख लगती है- जानती हूँ। मित्रों को बहुत विलम्ब हो जायगा यदि श्रृंगार करने में सब लगे तो, इसलिए इनको क्षुधा स्मरण आ गयी है- 'कितना ऊपर आ गया है सूर्य। आज तो हम सबने अभी कलेऊ भी नहीं किया। छीके उठा लाओ, हम सब यहीं भोजन करें। अपने बछडे़ जल पी ही चुके, धीरे-धीरे यहीं समीप चरेंगे। पर्याप्त हरित तृण हैं यहाँ पास ही।' 'मैं तेरा छीका उठा लाऊँ?' मधुमंगल को यह प्रस्ताव बहुत प्रिय लगा। लेकिन उसे कोई छीका मिलना नहीं है। यह दौड़ गये हैं और यह कहाँ आवश्यक है कि अपना ही छीका उठाया जाय। अपना-पराया क्या? जो भी एक या दो छीका हाथ में आ जाय इस दौड़ा-दौड़ी में, वही अपना। भोजन तो सबको साथ ही करना है। छीके उठाकर सबने इधर-उधर वन में देखा और अपने लिए पात्र पाना चाहा। पत्ते, बाँस की गाँठों पर लगी बड़ी सुचिक्कन सुपेलियाँ, विशाल पुष्पों की पंखड़ियाँ, सम चिकना शिला-खण्ड- जिसे जो मिल गया, जो प्रिय लगा, उठा लाया। 'तू क्या लेगा, कमलपत्र या शिला?' भद्र को लगता है कि कन्हाई का उदर बहुत पिचक गया है। अब इसे उठकर कहीं नहीं जाना चाहिये। इसे भूख लगी है तो यह सुकुमार चल कैसे सकता है। 'तू अपने लिए भी तो कुछ नहीं लाया!' श्रीव्रजराजकुमार पुलिन की रेत में ही बैठ गये थे उसी समय जब क्षुधा की बात कही थी। अब भद्र की ओर देखने लगे है कि वह अपना और इनका छीका उठाकर दौड़ तो आया; किंतु अपने लिए कोई पत्र तक नहीं तोड़ सका शीघ्र लौटने की चिंता में-'मैं तो अपने हाथ पर ही लूँगा।' 'तब ले तू!' भद्र को पलों की भी प्रतीक्षा सह्य नहीं। उसका यह अतिशय सुकुमार सखा भूखा है। इसे तत्काल कुछ देना है। छीका खोलकर फैला लिया और उज्ज्वल सुगन्धित भात मधुर दधि में मिलाकर धर दिया श्याम के सुन्दर वाम कर-कमल पर। इननी देर में इन्होंने स्वयं छीके में-से उठाकर अपनी हथेली की अँगुलियों के सिरों पर तनिक-तनिक अचार-चटनी चिपका ली हैं और अँगुलियों की सन्धियों में टेंटी जैसे कुछ फल दबा लिये हैं। इनके हाथ पर ग्रास देकर भद्र जमकर बैठ गया है सम्मुख दोनों छीके अपने पास फैलाये- 'मैं छीके में-से ही खाऊँगा।' |
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