नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
54. कालिन्दी-वन-भोजन
मुझे सेवा का सौभाग्य इसलिए इतना प्राप्त होता है; क्योंकि मैं अपने पर स्वामिनी की कृपा से संयम रखने में समर्थ हो गयी हूँ। अन्यथा ये समीप आते हैं तो हृदय तरंगायित नहीं होगा? इनका स्पर्श प्राप्त हो और शरीर स्तब्ध नहीं बनेगा? लेकिन सेवा अपने सुख का उत्सर्ग करके प्राप्त होती है। अपनी सुधि-बुधि विस्मृत हो जाय तो सेवा कैसे बनेगी? जो अपने अन्तर को, अपनी गति को, अपने स्वरूप को सानुकूल न रख सके, उसे स्वामी सेविका स्वीकार करेंगे? महाभावस्वरूपा समस्त प्रेमाराधनधिष्ठातृ परमा शक्ति मेरी स्वामिनी श्रीराधा के चारुचरणारविन्दों की रेणु शीश पर चढ़ाये बिना इन लीलामय, सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र, पूर्ण पुरुष, स्वच्छन्दगति पुरुषोत्तम तथा इनके स्वरूपभूत सखाओं की सेवा आना असम्भव ही है। ये कब क्या करेंगे, क्या चाहेंगे, इन सर्वनियन्ता, हृषीकेश को कोई कैसे समझेगा? इनके सानुकूल नहीं रहेगा तो उसे ये सेवा-प्रदान करेंगे? इन पूर्णकाम को कभी अन्य की सेवा अपेक्षित होती है? लेकिन ये प्रेमधन प्रीति प्रदान करने के लिए प्रमोद-दान के लिए क्या नहीं करते। सखाओं के साथ इनका स्नान- परस्पर जल-सिञ्चन और बछडे़-बछड़ियों को ठेलकर जल में लाकर धोने का प्रयास अद्भुत है। इन्होंने इसे भी क्रीड़ा बना लिया है। यह इनका स्नानार्द्र सर्वांग- सखाओं के साथ इनके स्पर्श का यह सौभाग्य मिला मुझे। वन-धातुओं के अंगों पर बने चित्र धुल गये हैं। सुमन-मालाएँ और अलकों में लगे पुष्प जल में प्रवाहित हो गये हैं। घुँघराली अलकों से बिन्दु टपक रहे हैं। अंगों की यह सुचिक्कन आर्द्रता- किसी भी सखा ने अपने अंग पोंछने की कोई चेष्टा नहीं की। बछडे़ जल से निकले और शरीर हिलाते, पूँछ उठाये कूदने लगे। हँसते निकले उनके पीछे सखाओं के साथ मदनमोहन। 'यह कितना उज्ज्वल, कितना कोमल पुलिन है। पर्याप्त उज्ज्वल है, स्वच्छ है।' श्यामसुन्दर ने एकबार इधर-उधर पुलिन को देखा, प्रसन्न हो गये।' |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज