नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. भगवती पूर्णमासी-मधुमंगल
'माँ! तुमने किसको आशीर्वाद दिया है?' मधुमंगल बहुत गंभीर हो गया- 'किसी को आशीर्वाद देना तो कोई पाप नहीं है।' 'जो आशीर्वाद सफल न हो, उसका उच्चारण असत्य बोलना तो है?' मैंने झल्लाकर सुना दिया उसे कि मैंने आज कुबला को, अतुला को ही नहीं, पीवरी को और तुंगी को भी सन्तान होने का आशीर्वाद दिया है। 'तब क्या हुआ?' मधुमंगल को आवेश में आते मैंने उसी दिन देखा- 'इनको माँ ने पुत्र होने का आशीर्वाद दिया है। मैं एक-एक पुत्र और होने का आशीर्वाद अभी दे आता हूँ। मैं भी तो ब्राह्मण हूँ और मेरे सखा क्या थोड़े हैं।' वह तो फिर विनोदी बन गया था। सचमुच दौड़ता चला गया और चारों के घर जाकर कह आया- 'माँ ने तुम्हें पुत्र होने का आशीर्वाद दिया है। मैं एक पुत्र होने का और आशीर्वाद देता हूँ; किंतु स्मरण रखना कि मेरे सखा आवेंगे। यह गृह अब से मेरा है।' मधुमंगल ने तो श्रीव्रजराज से, व्रजेश्वरी से और महर्षि शाण्डिल्य तक से यह शुभ-सम्वाद सुना दिया। गोप और गोपियों में इतनी अगाध श्रद्धा है कि वे सब इस बालक की बात भी सुनकर हँसकर उड़ा नहीं सकते; किंतु महर्षि शाण्डिल्य ने गम्भीर होकर इसकी ओर देखकर कहा- 'आप अवधूतोत्तम का आशीर्वाद सफल तो होगा ही। मैं अपने इन आने वाले यजमानों का स्वागत करने को प्रस्तुत हूँ।' मधुमंगल तो कहकर निश्चिन्त हो गया, भूल गया, किंतु उसकी धूम के कारण मैं किसी से तपोवन जाने की बात भी कहने योग्य नहीं रही। अब केवल अपने आराध्य आशुतोष प्रभु से प्रार्थना कर सकती थी कि वे इस अपनी चरणाश्रिता की वाणी सत्य करें। उन करुणावरुणालय ने मेरी सुनी। वस्तुत: वरदान तो मुझे मिला जब समाचार मिला कि जिन पाँच को मैंने वरदान दिया है, उनमें से यशोदा के अतिरिक्त शेष चारों के ही सीमन्तन संस्कार होने हैं। |
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