नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह'चक्र'
47. तुम्बरू-वेणु-वादन
मैं यह श्रृंगार, यह क्रीड़ा-कौतुक, यह कलेऊ, विनोद देखता हूँ- अपने शरीर को भूलकर देखता हूँ; किंतु मैं इस दिव्य क्रीड़ा के दर्शन मात्र के लिए तो यहाँ नहीं आया। मुझे समय मिलेगा? इनके विनोद में बाधा दिये बिना मैं सेवा का सुअवसर पा सकूँगा? बालकों में अनेकों ने पत्रों की सीटियाँ बनायीं। मैं सोचने लगा- 'व्यक्त हो जाऊँ? कुछ स्वर-सौष्ठव तो मैं इन सीटियों में स्थापित ही कर सकता हूँ।' 'सुबल! वंशी बजायेगा तू?' मुझे लगा कि नवघनसुन्दर अधोक्षज अन्तर्यामी हैं, यह श्रुति अकारण नहीं कहती। इन ह्रषीकेश ने मेरी भावना को समझकर ही कटि की कछनी में लगी वंशी निकाली है। 'बजाऊँगा! तू सिखा।' स्वर्णगोर, नीलवसन, कमलनयन सुबल समीप आ गया है। यह वंशी? मेरा ध्यान ही अभी मुरली पर नहीं गया था। यह वेणु की कौन-सी जाति है? वंशी के जो भेद होते हैं, लम्बाई, मोटाई, छिद्रो की संख्या आदि के कारण, वे सब मुझ संगीत-शिक्षा-गुरु के द्वारा ही प्राय: आविष्कृत हैं; किंतु यह कैसी वंशी है? एक ही दृष्टि में मैं समझ लेता हूँ कि मेरा आविष्कारक होने का अहंकार कितना ओछा है। इसमें तो सब विशेषताएँ हैं। मेरे द्वारा आविष्कृत वेणु के सब भेदों की सब विशेषताएँ। इससे सबके स्वर, सबका संगीत सरलतापूर्वक निकल सकता है। मेरी पद्धति पर वंशी-वादन करने वाले को अनेक आकार-प्रकार की वंशी रखनी होगी; किंतु इस एक ने सबको व्यर्थ बना दिया है। सम्भावना है कि इससे भी अधिक उत्तम स्वरभेद, रागभेद अधिक स्पष्ट व्यक्त हों। नीलकमल के अंक में जैसे स्वर्ण सरोज आ गया हो। अद्भुत छवि-छटा! सुबल खड़ा हो गया है और उसके करों में वंशी देकर उसके पीछे खड़े होकर दोनों भुजाओं में उसे घेरे श्यामसुन्दर वंशी-वादन सिखाने लगे हैं। सुबल के अत्यन्त सुन्दर मुख के वाम पार्श्व से सटा इनका इन्दीवर-सुन्दर श्रीमुख मुझ गंधर्व राज को इसकी उपमा सूझती नहीं है। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज