नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह'चक्र'
46. साधु-सेवक-वत्स-चारण
'कुछ करना चाहिये!' मैंने नन्दराय से बहुत संकोचपूर्वक कहा- 'बालक हठ पर आया है और यह पशुओं के पेट के नीचे इसका लेटना, सींग पकड़कर झूलना- यह तो वृषभों के ऊपर तक चढ़ जाता है, जब वे बैठे होते हैं! नारायण इसकी रक्षा करें!' 'क्या करना चाहिये चाचा?' नन्दराय ने नेत्रों में अश्रु भरकर मेरी ओर देखा- 'मुझे आजकल इस चिन्ता में निद्रा तक नहीं आती; किंतु कुछ सूझता नहीं। गोप-बालक का यह उत्साह तो उत्तम है; किंतु नीलमणि कितना छोटा है।' मैं अपने नेत्र पोंछता चुपचाप हट आया। मुझे ही कहाँ मार्ग सूझता है। मुझे मार्ग सूझता तो मैं यशोदा बहू को इतनी चिन्तित, दु:खी देख पाता? वे कितनी व्यथित हैं इन दिनों अपने कन्हाई के रूठने, आहार न करने और गोष्ठ में इस प्रकार मचलने से। 'लाल! तू तनिक और बड़ा हो जा तो गायें चराना।' नन्दराय बहुत स्नेह से समझाते हैं। 'मैं बड़ा तो हो गया!' कन्हाई मानने वाला कहाँ है। 'देख, गोप बड़े हैं, वे बड़ी गायें और वृषभ चराते हैं।' व्रजपति ने एक मार्ग निकाल लिया- 'तू छोटा है, तू छोटे बछड़े चराया कर।' 'हाँ, मैं बछड़े चराऊँगा।' मोहन प्रसन्न हो गया है। यह बछड़ों की ओर देख रहा है। बछड़े तो इसे गायों से भी अधिक अच्छे लगते हैं। अब तक बछड़े चराने की बात क्यों नहीं सूझी इसे। मैं नन्दराय की सूझ पर प्रसन्न हूँ, युक्ति उत्तम है। बछड़ों को चरना तो रहता नहीं। वन में जाते इन्हें स्वयं संकोच होगा। कुछ देर आसपास ही उछलकूद करके स्वयं गोष्ठ में भाग आवेंगे। 'मैं बछड़े ले जाऊँ?' कन्हाई इधर-उधर लकुट देखने लगा है। 'अभी नहीं लाल! मैं महर्षि शाण्डिल्य से मुहूर्त पूछने चल रहा हूँ। तुम साथ चलो! बछड़ों की पूजा करके तब उन्हें चराने ले जाना!' यह बात पिता की नीलसुन्दर को स्वीकार है। जानता है कि प्रत्येक कार्य का प्रारम्भ पूजा से होता है। महर्षि इसे मुहूर्त शीघ्र बतला देते हैं। |
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