नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. भगवती पूर्णमासी-मधुमंगल
व्रजेश्वरी बहुत श्रद्धालु हैं- सेवा की मूर्ति। उन्होंने मुझसे प्रार्थना की थी- 'मैं कुछ दिन गोकुल को अपने निवास से पवित्र करूँ।' मेरा यह चपल मधुमंगल बोल उठा था- पहिली बार इसने किसी नारी को माँ के स्थान पर मैया कहा। इसने व्रजरानी से कहा- 'मैया! तू भगाना चाहती है हमें? मैं भागनेवाला नहीं हूँ। मेरा सखा आवेगा इस गृह में, अत: यह तो मेरा गृह है।' मैंने कह दिया- 'सचमुच मैं यहाँ बसने की व्यवस्था करने को ही व्रजराज से कहने आयी हूँ।' मुझे किसी और से कुछ नहीं कहना पड़ा। यशोदा को, सभी गोपियों को और गोपों को भी लगा कि मैंने उन्हें कोई वरदान दिया है। वरदान तो इसे माना महर्षि शाण्डिल्य तक ने। उन्होंने अपने उटज के बहुत समीप ही मेरी कुटिया स्वयं समुपस्थित रहकर बनवायी। मुझे महर्षि शाण्डिल्य के रूप में पुन: भाई मिले; किंतु यह कभी निर्णय नहीं हुआ और न होगा कि हम दोनों में बड़ा कौन है। यह हम भाई-बहिन का स्नेह-विवाद है कि मैं उन्हें बड़ा भाई मानती हूँ और वे मुझे बड़ी बहिन कहकर मेरा सम्मान करते हैं। मुझसे आशीर्वाद की आकांक्षा करते हैं। मेरी सम्पूर्ण सुविधाओं का भार स्वयं उन्होंने उठा लिया है। इतनी शीघ्रतापूर्वक इतनी सुसज्ज कुटिया बन सकती है, यह मेरी कल्पना में ही नहीं था; किंतु मधुमंगल को वहाँ सवत्सा गौ बँधी देखकर प्रसन्नता नहीं हुई। वह उसी समय उसे महर्षि शाण्डिल्य के आश्रम में बाँध आया- 'मातुल! मैं गोबर नहीं उठाऊँगा। यह आप उठाना और माँ को उठाना होगा तो यहाँ आकर उठावेगी। अब दूध-दधि-माखन तो देखना कि मेरा सखा आता है तो कितना लुटाता है।' महर्षि इस अवधूत से शीघ्र परिचित हो गये। वे परम गम्भीर भी इसका सम्मान करते हैं। इसकी अटपटी बातों को स्नेह से सुनते हैं। उन्होंने फिर गौ मेरे उटज पर रखने का आग्रह नहीं किया। मैं अपने पर ही झुँझला उठी थी उस दिन। यह मेरी वाणी को हो क्या गया है। यशोदा तो फिर भी प्रौढ़ा हैं; किंतु मैं उपनन्द पत्नी तुंगी के पादस्पर्श करने पर उन्हें आशीर्वाद दे बैठी- 'तुम्हारी गोद पूर्ण हो!' यही आशीर्वाद मेरे मुख से निकल गया अभिनन्द पत्नी पीवरी के लिए भी। सन्नन्द की पत्नी कुबला तथा नन्दन की पत्नी अतुला को आशीर्वाद दिया जाना चाहिए था, उनकी अवस्था है, वे अधिकारिणी हैं, किंतु तुंगी और पीवरी? हे विश्वनाथ! |
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