नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
43. कीर्त्ति मैया-प्रथम परिचय
'तेरी बहिन तो बड़ी है और वह काला है।' सेविका हँसना भूल गयी। सुबल रुष्ट हो गया। मैंने पहिली बार इसे क्रोध में देखा- 'तू काली है! बूढ़ी है! मेरा सखा बहिन से बहुत बड़ा है। तू नाप ले चलकर!' मेरी लाली कुछ ही मास तो बड़ी है नीलसुन्दर से। इससे क्या अंतर पड़ता है। यह छुई-मुई जैसी और कृशकाय। सुबल को आयु के अन्तर के बड़प्पन का कहाँ पता लगता है। यह तो समझता है कि दोनों को सटाकर साथ खड़ा करो और देख लो कि कौन बड़ा है। दोनों साथ सटकर खड़े हो जायँ- मैं कब इस शोभा को देख सकूँगी। वह यहाँ आता तो मैं इसी सुबल की बात का बहाना बनाकर अवश्य दोनों को साथ खड़ा कर लेती। तू हमारे साथ चल! मेरा सखा बहुत अच्छा है! मैया तुझे बहुत से खिलौने देगी! मैंने सुन लिया कि सुबल अपनी बहिन को समझाने लगा है- 'वहाँ बहुत सखा हैं। उज्ज्वल कोमल पुलिन है यमुना का। तू वहाँ चलेगी तो प्रसन्न होगी। यहाँ तो यह भवन है और तेरे साथ की लड़कियाँ हैं। तू इन सबको ले चल।' 'ये सब मुझे चिढ़ावेंगी!' मेरी लाली सहमत हो गयी भाई के साथ जाने के लिए; किंतु कोई सहेली नहीं ले जायगी। मैं इसे मना नहीं कर सकती। मैंने और इसके पिता ने भी तो कभी किसी बात के लिए मना नहीं किया इसे। यह इन दिनों खिन्न रहने लगी है। दोनों भाई प्रात: चले जाते हैं वहाँ खेलने और अन्धकार होने पर लौटते हैं। यह अब तक भाईयों के साथ ही तो लगी रहती थी। अब उदास रहने लगी है। लड़कियाँ आती हैं; किंतु यह चुपचाप बैठी रहती है- जैसे कुछ सोचती बैठी हो। मुझसे इसकी यह उदासी तो नहीं देखी जाती। वहाँ जायगी तो प्रसन्न होगी। बहुत अबोध थी तब सगाई की गयी। इसे तो पता है नहीं। वहाँ भी औरों को पता नहीं है। रहना अन्त में इसे वहीं है। उनकी तो है ही। पहिले वहाँ से परिचित हो ले, वे इस मेरी सुमन-सी सुता को देख लें तो कोई हानि नहीं लगती। मेरी लली लोटी है नन्दगाँव से। यह शैशव से अत्यन्त संकोचशीला, अपने यहाँ के लड़कों में ही नहीं खेल पाती जो इसे श्रीदाम-सुबल के समान ही सगी अनुजा मानते हैं तो वहाँ अपरिचित लड़कों के साथ कैसे खेल सकती थी। श्रीदाम इसे लौटा गया है, इतना ही बहुत हुआ। अकेली तो यह कहीं भी जा नहीं पाती। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज