नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
31. अश्विनी कुमार-कर्ण-वेध
व्रजपति असमर्थ हैं अपने कुमार का रुदन देखने में। असमर्थ तो हैं महर्षि और विप्रगण। सब जाने की शीघ्रता में है। व्रजराज उनको दक्षिणा देने में व्यस्त होकर अपना ध्यान इधर से हटाना भी चाहें तो क्या हटा पाते हैं? 'लाल, तोक रो रहा है!' मैया ने कहा और दोनों कर छोड़ दिये- 'तू उसे चुप नहीं करायेगा।' यह इनकी दूसरी मूर्ति तोक-इतना स्नेह-भाजन इनका? इन्होंने तो सुनते ही इधर-उधर सिर किया। मैया ने अञ्चल से अश्रु पोंछ दिये और ये उठ पड़े। अब अपने इस छोटे भाई के कपोल पर नन्हा कर रखकर कहते हैं- चुप! चुप हो जा!' तोक भी अद्भुत है। अभी सबसे अधिक रो रहा था। कर छुड़ाने को छटपटा रहा था और अब हँसने लगा है। इनको देखकर और ये अपनी हथेलियों से ही उसके अश्रु पोंछ रहे हैं। 'आप दोनों में-से एक तो आवेंगे प्रतिदिन जब तक ये धागे नहीं खुलते?' स्वर्णकार को नेग देकर ब्रजेश्वरी सानुरोध पूछती हैं। 'हम दोनों प्रतिदिन आवेंगे मात:!' यह सौभाग्य छोड़ा जा सकता है- 'इन कुमारों की कर्णपल्लियों में स्वकर से ही नित्य औषधीय तैल लगावेंगे। इन्हें अब कोई कष्ट नहीं होगा। इनके कर्णों के ये सूत्र खुल तो सप्ताह भर में भी सकते हैं; किंतु दस दिन में ही हमें खोलने दीजिये। इससे छिद्र पुष्ट हो जायँगे और तब हम स्वयं इन सूत्रों के स्थान पर हीरक-शलाकाएँ कुमारों को पहिनाकर आपको प्रणाम करेंगे।' हमने बहुत प्रयत्न किया कि कुमारों की इस सेवा का नेग हम हीरक-शलाका धारण कराने के अवसर ले लेंगे; किंतु यह बात ब्रज में किसी को भी स्वीकार नहीं है। हीरक-शलाका धारण कराने का नेग उस समय, परंतु आज का और प्रतिदिन का नेग तो हमें लेना ही चाहिये- मैया के इस अनुरोध को हम अस्वीकार नहीं कर सके। जिनके करों का प्रसाद कुमार-नारदादि सबको पवित्र कर सकता है, वे इन नवघन-सुन्दर तथा साक्षात अनन्त की जननी हम दोनों को दस दिन साग्रह भोजन करावेंगी। सुरेन्द्र ने सोमपान का हमारा अधिकार विवश होकर माना था; किंतु अब वे हमारे सौभाग्य की समता का स्वप्न भी देख सकेंगे?' |
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