नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
18. पीवरी तायी-भूम्युपवेश
'जीता रहे! युग-युग जीये मेरा लाल!' मेरा आशीर्वाद- मुझ जैसी सबका आशीर्वाद और इस समय तो गगन गूँज गया है गोपों की कण्ठ-ध्वनि से- 'श्रीव्रजराज कुमार की जय!' 'जय मेरे लाल की! नन्दलाल की जय!' यह अपने पैर अर्ध-कुञ्चित करके कोमल करों को भूमि में टेककर बैठ गया है। कितना प्रसन्न है! कितने ध्यान से सम्मुख बने बडे़-से पुष्प को देख रहा है! बुद्धिमान है मेरा लाल! समझता है कि कोई भी कर उठावेगा पुष्प-पकड़ने को तो बैठा नहीं रह सकेगा। अपने को ठीक सम्हाले बैठा है। यशोदा ने इसके दोनों ओर अपनी हाथों की ओट बना रखी है। अब यह 'हूँ, हाँ' कहते मुड़ा- मैया की ओर देखने के प्रयत्न में उसके हाथों पर लुढ़क गया। हो गया- इतने क्षण यह भूमि पर बैठा रहा- यही क्या कम है। कितने अरुण हो गये हैं इसके नितम्ब इतनी-सी देर में! 'बालक को अब अधिक प्रांगण में नहीं रहना चाहिये!' जेठ ने कितने अवसर पर यह बात कही है। महर्षि ने स्वीकृति दे दी। यह कहाँ देर तक अभी आतप में रहने योग्य है। कक्ष में मातृ-पूजन, गुड़-घृत से वसोर्धारापात, नीराजन करके महर्षि ने विप्रवर्ग के साथ इसको अभिषिक्त किया है और इसके कर में रक्षा-सूत्र बाँधकर भाल पर कुंकुम-तिलक लगाकर अक्षत लगा दिये हैं। यह इसका अक्षत-युक्त तिलकांकित भाल; किंतु मुझे तत्काल राई-लवण उतारना है। इसको किसी की कुदृष्टि नहीं लगनी चाहिये। |
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