नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
17. श्रीगर्गाचार्य–नामकरण
मैंने समझाया कि गोकुल में मेरा आगमन गुप्त रहना चाहिए। शिशुओं की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है। अत∶ न मैं कुछ साथ ले जा सकता और न व्रजपति को मुझे पहुँचाने के लिए गोष्ठ से बाहर जाना चाहिए। वहीं दोनों माताओं ने मुझे प्रणाम किया। शिशुओं को मेरे पदों पर रखा। नन्दराय ने साश्रु लोचन प्रणिपात किया भूमि में पड़कर। वसुदेवजी! पता नहीं अन्त∶करण में कौन-सी अज्ञात शक्ति मुझे अत्यन्त प्रबल रूप से प्रेरित करने लगी। गोकुल में मुझे बहुत थोड़ा समय लगा था। मैं वहाँ से आता तो मध्याह्न से बहुत पूर्व आपके समीप आ जाता; किंतु मैं मथुरा आने के स्थान पर वृहत्सानुपुर की ओर चल पड़ा। मैं वहाँ यमुना-तट पर शोभित उस पुरी में पहुँचा तो मध्याह्न हो चुका था। कालिन्दी में स्नान करके मैंने मध्याह्न-सन्ध्या की। इतने में गोपों से मेरे आगमन का समाचार प्राप्त करके वृषभानुजी वहीं यमुना-तट पर ही आ गये। उन्होंने अतिशय आग्रह करके मुझे आतिथ्य का आमन्त्रण दिया। मैं उनके भवन गया और वहाँ सुरों का भी न हो, ऐसा सत्कार-सविधि-पूजन हुआ। मैं आहार-ग्रहण करके किञ्चित विश्राम करने लेटा तो वृषभानुजी ने मेरे चरण दबाते संकोचपूर्वक कहा- 'संसार में श्रीचरणों से अधिक ज्योतिष का ज्ञान सुरों में भी सम्भव नहीं है। इस सेवक के भी एक कन्या है, एक उसका युग्मजप्राय अग्रज है!' वे परम विनीत इससे अधिक नहीं कह सके। मैंने ही कहा उन्हें और अब समझता हूँ कि वहाँ मुझे इसी कार्य के लिये पहुँचने की प्रेरणा मेरे अन्तर्यामी ने की थी। वहाँ न जाता तो मेरी गोकुल-यात्रा अपूर्ण रहती। मैंने कहा- 'आप संक्षिप्त रूप में ही नामकरण स्वीकार करें तो केवल सवस्तिपाठ-पूर्वक मैं वह कर दे सकता हूँ। क्योंकि मैं आज ही सूर्यास्त से पूर्व मथुरा पहुँचना चाहता हूँ।' वृषभानुजी ऐसे प्रसन्न हुए, जैसे उनको कोई अतर्कित ऐश्वर्य मिल गया हो। वे वहीं अपनी महारानी को बुला लाये; किंतु मैंने यमुना-तट पर बनी उनकी एकान्त बैठक स्वीकार की। रानी कीर्तिदा की क्रोड़ी में दो शिशु थे। समान आयु और ऐसे समान रूप के कि उनको पृथक-पृथक उनके माता-पिता के लिए भी पहिचानना कठिन था। अत∶ उन्होंने दोनों के करों तथा कण्ठों में ऐसे आभरण पहिना दिये थे कि दूसरे भी उनके बालक-बालिका होने का भेद प्रतीत हो सकता था। |
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