साक्षात् सृष्टिकर्त्ता-सुत, श्रुति-पारंगत उत।
महर्षि ब्रह्मर्षि प्रजापति-प्रधान अग्नि।
इस समय अजीर्णग्रस्त क्योंकि है मुख्याग्नि।।
हव्यवाह जाठराग्नि दोनों का समस्त कार्य, दुर्निवार्य,
मेरे लिए अनिवार्य।
किंतु भाई नारद ने कहा है 'व्रजधरा धन्य'
सृष्टि में पावनतम स्थल नहीं ऐसा अन्य।
अतः आज दर्शन करने हूँ यहाँ आया
जीवन का लाभ यहाँ आकर[1] पाया।
अखिलेश्वर नन्दतनय संकर्षण सनातन,
इनके श्रीचरण-दर्शन [कृतकृत्य मन।]
संग सखा गोपबाल-
[ऋषि-मुनीन्द्र-प्रणतपाल।]
सौन्दर्य, शील सकल सद्गुण-निधान।
[चिद्घन वपु भा-समान।]
श्रीकृष्ण प्रेम-विग्रह साक्षात्।
हरि-हृदय प्रीतिपात्र।
दिवस मध्याह्न भाण्डीरवट यमुनाकूल।
उच्छलित आमोद - नाना सुरंग दुकूल।
इनका यह वन-भोजन श्रीकृष्ण-राम संग
[क्या आश्चर्य-स्रष्टा भूल गये अपना रंग]
चारों ओर छाया में बैठे हैं समस्त पशु।
बालकों की क्रीड़ा - सब भोजन कर तन्मय अस;
विस्मृत पशु, विस्मृत परिस्थिति, समाज सब।
विस्मृत में कोई उठा कैसे विवाद अब।।