श्रीदाम श्रीहरिप्रिय, हुए[1] इतने रुष्ट।
क्रीड़ा में - अरुण मुख [कठोर वाणी! अहो! कष्ट!]
'दाव नहीं देता तू, हारता है तब भी?
किसका है गर्व तूझे? मुझसे बढ़ अब भी!
किंतु नहीं-तेरे साथ अब न मुझे खेलना।
नित्य का झंझट नहीं है और झेलना।
सुबल! चल हम सब अब इससे पृथक रहें।
इससे न बोलेंगे - कोई कुछ भी कहे।'
यह क्या? कमललोचन इतने से दोनों कर मुख पर धर
बैठ गये, रुदन करते हैं हिचकी भर?
हो गया - इतना श्रीदाम को सह्य कहाँ।
मान - रोष अब कैसा, देखा तक नहीं यहाँ।
कितना अपार स्नेह, वक्ष से लिपटा -
अपने दुकूल से नेत्र पोंछ चिपटा -
पूछता है- 'कनूँ! तू रोने क्यों लगा?
मैंने तो कभी भी तुझे क्रीड़ा में नहीं ठगा।
चुप हो जा! बोल तू चाहता है क्या बता?
रोकर मुझे अब इतना तो मत सता।'
'अपने साथ रहने दो, अपना मुझे दो प्यार।'
'छिः! फिर रोता है?
यह तो तेरा अधिकार।'