नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
36. चाचा सन्नन्द-दामोदर-मुक्ति
'तुझे किसने बाँधा था? प्रश्न के साथ मैंने देखा कि दाऊ का मुख प्रभात के उदय होते सूर्य के समान अरुण हो उठा है। लोचन लाल-लाल हो गये हैं। मुट्ठियाँ बँध गयी हैं। मेरा हृदय धड़कने लगा। दाऊ इतना रुष्ट? पता नहीं क्या उत्पात करे यहाँ। 'मैंने बाँधा था लाल!' भाभी की दृष्टि भी सम्भवत: मोहन के उदर के उस चिह्न पर अभी ही गयी। इनके नेत्रों से भी अश्रु-प्रवाह फूट पड़ा है। स्वर में अथाह व्यथा है। 'मैया!' दाऊ तो भाभी की ओर दृष्टि उठाकर रो पड़े हैं। मुट्ठियाँ खुल गयी हैं। मुख की अरुणिमा मिटती जा रही है। यह कन्हाई मैया को छोड़कर अग्रज के समीप आ गया है। 'दादा!' श्याम अपने नन्हे हाथों अग्रज के कपोलों पर ढुलकते अश्रु पोंछ रहा है- 'तू भूखा है?' 'यहाँ तुझे पीड़ा होती है?' भद्र रोते-रोते अँगुली से उदर में पड़ी रेखा को छूकर पूछने लगा है। 'मुझे? मुझे तो कुछ नहीं हुआ!' कन्हाई भी अब सिर झुकाकर अपने उदर में पड़ी रेखा को अँगुली से छूकर देखने लगा है- 'यह चाहिये तुझे? मैया ऊखल में बाँध देगी तब बनेगी।' 'मैं अब तुझे और किसी को कभी नहीं बाधूँगी मेरे लाल!' भाभी तो इतने क्षण में नवनीत भी ले आयीं और श्याम के उदर में पड़ी उस रेखा पर बहुत सम्हालकर लगाने लगी हैं। इनके नेत्र झर रहे हैं। इन शिशुओं ने कलेऊ नहीं किया है अब-तक। इनको कुछ खिलाये बिना यज्ञ-स्थल में ले जाना उचित नहीं और अब इनमें-से एक को भी एकाकी यहाँ छोड़कर कोई भी हटना नहीं चाहता। दाऊ, भद्र, तोक-सब रूठ गये थे। कोई मुख ही नहीं खोलता था। भाभी ने मनुहार कर लिया; किंतु मधुमंगल ही उनके कर का मोदक नहीं पकड़ता तो दूसरे माखन कैसे खायेंगे और ये ब्रजेश्वरी नहीं मना पातीं तो दूसरा कोई मना पावेगा इन सबको? 'मैया!' श्याम ने जननी का हाथ पकड़ा- 'मैं खाऊँगा! ना, हाथ पर दे तू मुझे!' इसे भी क्या आज इतना रोष है कि भाभी के हाथ से मुख में नहीं लेगा?' 'दादा! मुख खोल!' ओह; तो हमारा नीलमणि सखाओं को मनाने लगा है। यह अपनी दो अँगुली से उठाकर तनिक-सा माखन दे रहा है, पर अब कोई मुख बन्द नहीं रखेगा। अब तो सब व्रजेश्वरी भाभी के करों से भी लेने लगे हैं। इनसे भी माँगने लगे हैं। कहीं शिशुओं का रूठना भी देर तक टिकता है। ये सब कलेऊ कर लें तो इनको लेकर यज्ञ-कार्य सम्पन्न किया जायगा। |
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