नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
31. अश्विनी कुमार-कर्णवेध
गोप उन्मुक्त वनों में विचरण करने वाली जाति है। गो-सेवकों को वैद्य से प्रयोजन? अमृत को भी अनादरित करने वाला गोरस है उनके समीप और कोई रोग कभी आ ही जाय तो गोमूत्र के सम्मुख टिकता है? समस्त चर्म-रोगों के अधिदेवता गोबर की रगड़ से काँपते हैं। गोरज जिस क्षेत्र पर उड़ती है, ग्रह, भूत-प्रेत, यक्ष सब तो वहाँ से दूर रहते हैं। अत: कोई व्रज में वैद्य क्यों बसाये? जहाँ तक गोकुल की बात है- यह तो मर्त्य धरा नहीं है। यहाँ के पशु-पक्षियों की चिन्मय काया, क्या आश्चर्य कि किसी को स्मरण ही नहीं आता यहाँ कि मनुष्यों का एक वर्ग चिकित्सक भी होता है और उसकी सभी को कभी न कभी आवश्यकता पड़ा करती है। हम निराश ही थे। सर्वेश्वरेश्वर परम पुरुष पधारे धरा पर और हमें उनकी सेवा का कोई सौभाग्य नहीं मिलेगा। उनके स्वजनों, परिकरों की सेवा भी सुलभ नहीं होगी। सुराधम- हमें कोई देवता नहीं कहता; क्योंकि सबका हमसे प्रयोजन है; किंतु सुरेन्द्र ने तो हमें सोम-पान का अनधिकारी ही बना रखा था। महर्षि च्यवन के सम्मुख जब बस नहीं चला तब हमारा यह अधिकार स्वीकार किया उन्होंने। सभी सुर अपने को हमसे श्रेष्ठ मानते हैं। श्रेष्ठ तो वे हैं; क्योंकि उनमें सबके लिए धरा पर पधारे श्रीहरि की सेवा का अवकाश है; किंतु हमारे लिए तो यह अवसर नहीं है। जो पतित-पावन, अशरण-शरण, अनाथ-नाथ हैं, वही तो निरुपाय के आधार हैं। उन सर्वज्ञ, सकलेश्वर को हमारा मनोमन्थन सहन नहीं हुआ। उन लीलामय श्रीनन्दनन्दन को हम पर दया आयी और उन्होंने हमारे लिए अवसर निकाल लिया। दो वर्ष पाँच मास के हो गये नाक्षत्र मास से श्रीव्रजराज कुमार। जननी के अंक में बैठकर उनके कुण्डल खींचते मचल उठे- 'इनको मेरे कानों में पहिना दे!' अपनी कर्ण-पल्ली छूते हैं और माता से खीझते हैं- 'तू तो हँसती है! इनको मेरे कानों में पहिना!' हम दोनों विभोर हो उठे- 'धन्य भक्तवत्सल! हम सुराधमों को सेवा का सौभाग्य देना है आपको अन्यथा आपके इस इच्छामय आनन्दघन श्रीविग्रह में तो आपके नित्य कुण्डल अभी प्रकट हो जायँगे, आपके चाहते ही। आपके आभूषण कहाँ प्रकृत हैं कि उनको कहीं से लाना है। वे चिद्घन तो आपकी अनिच्छा के कारण ही अन्तर्हित हैं; किंतु आपको सम्पूर्ण नरलीला करनी है तो सेवा का सुअवसर आपने हम दोनों को सुरों में सबसे पहिले देना निश्चित कर लिया।' |
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