नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. मल्लिका मौसी-सर्वप्रिय
इसे लगता होगा कि इसका सखा तोक आकर इसके समीप बैठ गया है। तोक है भी तो इसके इतना सदृश कि भ्रम तो तोक की माता अतुला जीजी को भी हो जाता है। यह अपने उस छोटे भाई पर प्राण देता है अभी से। अब तोक को खिलाये बिना तो यह खाने से रहा। 'तू खा! खा ले तू!' कितना आग्रह है इसके स्वरों में। माखन मणि स्तम्भ से लगा रहा है- 'मैं अब तुझे लिए बिना कहीं नहीं जाऊँगा! तू रूठ मत! माखन खा ले!' मुझे हँसी आ गयी इसके भोलेपन पर और इसका भोलापन तो सीमातीत है। मैं हँसकर ओट से निकली तो हाथ में माखन लिए ही उठकर मेरे समीप आ गया। कमललोचन भर आये थे। चन्द्रमुख उदास हो गया था। मुझसे कहने लगा- 'तोक! तोक रूठ गया है। तू मना दे उसे! चल!' मैं अपना हास्य भूल गयी इसके भरे-भरे नेत्र देखकर! मैंने इसके कपोल सहलाकर पुचकारकर कहा- 'तोक कहाँ है लाल?' 'अब मुड़कर इसने मटके के पास देखा। वहाँ तोक हो तो दीखे। कितना मञ्जु हो आया था कन्हाई का मुख संकुचित होकर। लज्जित हो गया मेरा लाल और फिर सहसा भाग खड़ा हुआ। मैं पुकारती रही गयी- 'अरे आ! माखन तो खा जा! मैं तोक को भी बुला लाती हूँ।' अब यह कहाँ मेरी सुनने वाला था। आज भी भूल मेरी ही थी। माखन का पात्र मुझे मणि स्तम्भ के समीप तो नहीं रखना था। अभी नीलमणि शरीर और प्रतिबिम्ब का भेद कहाँ समझ पाता है। वह किसी अन्य की उपस्थिति समझकर प्रारम्भ में ही भाग जा सकता था, डर सकता था। आज भी वह अत्यल्प नवनीत खाकर ही भाग गया। वह तो भाग गया; किंतु मैं कहाँ उसके पीछे भाग सकती हूँ। इस ग्राम की वधू न होती तो तभी भाग निकलती। अब तो जीजी के समीप जाकर ही उसका सुन्दर मुख देखना है। |
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