नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
21. काकभुशुण्डि-क्रीड़ा
जो भी भोग-योगिनाँ हैं, उनमें भोगों की क्षमता मनुष्य की अपेक्षा बहुत अधिक है और अपने भोगों में वे बहुत अधिक स्वतन्त्र हैं। मनुष्य तो जब भोगोन्मुख होता है तो उनका दास हो जाता है। भोगासक्ति उसे परतन्त्रता देती है; क्योंकि मनुष्य भोगयोनि नहीं है। यह कर्म-योनि है- साधन करके कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाने के लिए परमात्मा से प्राप्त देह। हम पक्षियों में मनुष्य से बहुत अधिक तीव्र दृष्टि-शक्ति है और जीवन-पर्यन्त बनी रहती है; किंतु यह हमारे आहार-प्राप्ति का साधन है। कम ही पक्षी होंगे जिनकी दृष्टि में सौन्दर्य-बोध हो जो मनुष्यों को दृष्टि की परतन्त्रता देता है। पक्षी में घ्राणशक्ति तो नितान्त नगण्य है। हमारी रसना भी हमें मानव के समान स्वाद-परतन्त्र नहीं बनाती। वह केवल उदर-पूर्ति का माध्यम है। श्रवण की- शब्द की परतन्त्रता भी हमको नहीं होती। केवल स्पर्श और वह भी काक में तो अत्यल्प- कुछ थोड़े दिनों ही काम जगा पाता है। मैं मनुष्य था। महर्षि लोमश ने शाप देकर वह दे दिया, जो परमात्मा ब्राह्मण बनाकर नहीं दे सका था। मैं मनुष्य के सब सदगुणों से-विशेषताओं से सम्पन्न बना रहा और मनुष्य के व्यसनों से, विवशताओं से मुक्त हो गया। मैं काक हूँ, अत∶ चाहे जहाँ उड़कर पहुँच सकता हूँ। स्वाद, सौन्दर्यबोध, घ्राण, स्वर-सौष्ठव आदि मुझे पराधीन नहीं करते; किंतु इन सबका बोध मुझमें बना है। साधन-ज्ञान-वैराग्य-भगवद्भक्ति- सबका उदय मेरे अन्त∶करण में होता है। इतनी विशेषता के साथ इतनी स्वतन्त्रता तो महापुरुष ही प्रदान कर सकते हैं। मैं शिशु सर्वेश का उपासक हूँ। वे गोकुल में पधारें अथवा अयोध्या में, मैं उनकी पाँच वर्ष तक की आयु का रसिक उनके श्रीचरणों का तब-तक सान्निध्य प्राप्त कर लेता हूँ। पक्षी हूँ, अत∶ धनुष-बाण से मुझे भय लगता है और वंशी के स्वर-सौष्ठव में मराल की भले रुचि हो, काक की रुचि हुआ नहीं करती। जानता हूँ- वे इन्दीवर-सुन्दर अयोध्या में आते हैं तो किञ्चित हरिताभा अपना लेते हैं- दुर्वादल-श्याम हो जाते हैं और गोकुल में कुछ अरुणिमा होती है श्यामता में। अतसी-कुसुम की शोभा स्वीकार करते हैं। अयोध्या में वे कुछ प्रलम्ब वपु होते हैं और गोकुल में किञ्चित खर्वविग्रह; किंतु मेरे तो सर्वस्व हैं ये नवघनसुन्दर! |
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