- महाभारत सभा पर्व के ‘राजसूयारम्भ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 15 के अनुसार जरासंध के विषय में युधिष्ठिर, भीम और श्रीकृष्ण की बातचीत की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण से पुन: जरासन्ध वध का उपाय पूछना
युधिष्ठिर बोले-श्रीकृष्ण! आप परम बुद्धिमान् हैं, आपने जैसी बात कही है, वैसी दूसरा कोई नहीं कह सकता। इस पृथ्वी पर आप के सिवा समस्त संशयों को मिटाने वाला और कोई नहीं है। आज कल तो घर-घर में राजा हैं और सभी अपना-अपना प्रिय कार्य करते हैं, परंतु वे सम्राट् पद को नहीं प्राप्त कर सके; क्योंकि सम्राट् की पदवी बड़ी कठिनाई से मिलती है। जो दूसरों के प्रभाव को जानता है, वह अपनी प्रशंसा कैसे कर सकता है ? दूसरे के साथ मुकाबला होने पर भी जो प्रशंसनीय बना रह जाय, उसी की सर्वत्र पूजा होती है। वृष्णि कुलभूषण! यह पृथ्वी बहुत विशाल है, अनेक प्रकार के रत्नों से भरी हुई है, मनुष्य दूर जाकर (सत्पुरुषों का संग करके) यह समझ पाता है कि अपना कल्याण कैसे होगा। मैं तो मन और इन्द्रियों के संयम को ही सबसे उत्तम मानता हूँ , उसी से मेरा भला होगा। राजसूय यज्ञ का आरम्भ करने पर भी उस के फलस्वरूप ब्रह्मलोक की प्राप्ति अपने लिये असम्भव है- मेरी तो यही धारण है। जनार्दन! ये उत्तम कुल में उत्पन्न मनस्वी सभासद् ऐसा जानते हैं कि इन में कभी कोई श्रेष्ठ (सर्वविजयी) भी हो सकता है। पापरहित महाभाग! हम भी जरासंध के भय से तथा उस की दुष्टता से सदा शंकित रहते हैं। किसी से परास्त न होने वाले प्रभो! मैं तो आपके बाहुबल का भरोसा रखता हूँ। जब आप ही जरासंध से शंकित हैं, तब तो मैं अपने को उस के सामने कदापि बलवान् नहीं मान सकता। महाबाहु माधव! आपसे, भीमसेन से अथवा अर्जुन से वह मारा जा सकता है या नहीं ? वार्ष्णेय! (आप की शक्ति अनन्त है,) यह जानते हुए भी मैं बार-बार इसी बात पर विचार करता रहता हूँ। केशव! मेरे लिये सभी कार्यों में आप ही प्रमाण हैं। युधिष्ठिर का यह वचन सुनकर बोलने में चतुर भीमसेन ने यह वचन कहा।[1]
भीमसेन का युधिष्ठिर को समझाना
भीमसेन बोले - महाराज! जो राजा उद्योग नहीं करता तथा जो दुर्बल होकर भी उचित उपाय अथवा युक्ति से काम न लेकर किसी बलवान् से भिड़ जाता है, वे दोनों दीमकों के बनाये हुए मिट्टी के ढेर के समान नष्ट हो जाते हैं। परंतु जो आलस्य त्यागकर उत्तम युक्ति एवं नीति से काम लेता है, दुर्बल होने पर भी बलवान् शत्रु को जीत लेता है और अपने लिये हितकर एवं अभीष्ट अर्थ प्राप्त करता है।। श्रीकृष्ण में नीती है, मुझ में बल है और अर्जुन में विजयी की शक्ति है। हम तीनों मिलकर मगधराज जरासंध के वध का कार्य पूर कर लेंगे; ठीक उसी तरह, जैसे तीनों अग्नियाँ यज्ञ की सिद्धि कर देती हैं। गोविन्द! आपके बुद्धिबल का आश्रय लेकर धर्मराज युधिष्ठिर सब कुछ पा सकते हैं। जिन की सदा रक्षा करने वाले आप हैं, उनकी-हम पाण्डवों की विजय निश्चित है।। श्रीकृष्ण ने कहा - राजन्! अज्ञानी मनुष्य बड़े-बड़े कार्यों का आरम्भ तो कर देता है, परंतु उनके परिणाम की ओर नहीं देखता। अतः केवल अपने स्वार्थ साधन में लगे हुए विवेक शून्य शत्रु के व्यवहार को वीर पुरुष नहीं सह सकते। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता ने जीतने योग्य शत्रुओं को जीतकर सम्राट् का पद प्राप्त किया था। भगीरथ प्रजा का पालन करने से, कार्तवीर्य (सहस्रबाहु अर्जुन) तपोबल से तथा राजा भरत स्वाभाविक बल से सम्राट् हुए थे।[1] इसी प्रकार राजा मरूत्त अपनी समृद्धि के प्रभाव से सम्राट् बने थे। अब तक उन पाँच सम्राटों का ही नाम हम सुनते आ रहे हैं। युधिष्ठिर! वे मान्धाता आदि एक-एक गुणों से ही सम्राट हो सके थे; परंतु आप तो सम्पूर्ण रूप से सम्राट पद प्राप्त करना चाहते हैं। साम्राज्य-प्राप्ति के जो पाँच गुण शत्रुविजय, प्रजापालन, तपः शक्ति, धन-समृद्धि और उत्तम नीति हैं, उन सबसे आप सम्पन्न हैं। परंतु भरत श्रेष्ठ! आप के मार्ग में बृहद्रथ का पुत्र जरासंध बाधक है, यह आपको जान लेना चाहिये। क्षत्रियों के जो एक सौ कुल हैं, वे कभी उस का अनुसरण नहीं करते, अतः वह बल से ही अपना साम्राज्य स्थापित कर रहा है। जो रत्नों के अधिपति हैं, ऐसे राजा लोग (धन देकर) जरासंध की उपासना करते हैं, परंतु वह उस से भी संतुष्ट नहीं होता। अपनी विवेकशून्यता के कारण अन्याय का आश्रय ले उन पर अत्याचार ही करता है। आजकल वह प्रधान पुरुष बनकर मूर्धाभिषिक्त राजा को बलपूर्वक बंदी बना लेता है। जिन का विधिपूर्वक राज्य पर अभिषेक हुआ है, ऐसे पुरुषों में से कहीं किसी एक को भी हम ने ऐसा नहीं देखा, जिसे उस ने बलि का भाग न बना लिया हो - कैद में न डाल रक्खा हो। इस प्रकार जरासंध ने लगभग सौ राजकुलों के राजाओं में से कुछ को छोड़कर सब को वश में कर लिया है। कुन्ती नन्दन! कोई अत्यन्त दुर्बल राजा उस से भिड़ने का साहस कैसे करेगा। भरतश्रेष्ठ! रुद्र देवता को बलि देने के लिये जल छिड़क कर एवं मार्जन करके शुद्ध किये हुए पशुओं की भाँति जो पशुपति के मन्दिर में कैद हैं, उन राजाओं को अब अपने जीवन में क्या प्रीति रह गयी है ? षत्रिय जब युद्ध में अस्त्र-शस्त्रों द्वारा मारा जाता है, तब यह उसका सत्कार है; अतः हम लोग जरासंध को द्वन्द्व-युद्ध में मार डालें। राजन्! जरासंध ने सौ में से छियासी (प्रतिशत) राजाओं को तो कैद कर लिया है, केवल चौदह (प्रतिशत) बाकी हैं। उनको भी बंदी बनाने के पश्चात् वह क्रूर कर्म में प्रवृत्त होगा। जो उसके इस कर्म में विघ्न डालेगा, वह उज्ज्वल यश का भागी होगा तथा जो जरासंध को जीत लेगा, वह निश्चय ही सम्राट् होगा।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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