श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
(ख) अपने वर्ण, आश्रम आदि के अनुसार कर्तव्य पालन करते हुए उसमें भगवान की आज्ञा के विरुद्ध कोई काम न हो जाए; हमें विद्या पढ़ाने वाले, अच्छी शिक्षा देने वाले आचार्य, गुरु, संत-महात्मा, माता-पिता आदि के वचनों की आज्ञा की अवहेलना न हो जाए; हमारे द्वारा शास्त्र और कुलमर्यादा के विरुद्ध कोई आचरण न बन जाए- इस प्रकार का भय भी बाहरी भय कहलाता है। परंतु यह भय वास्तव में भय नहीं है, प्रत्युत यह तो अभय बनाने वाला भय है। ऐसा भय तो साधक के जीवन में होना ही चाहिए। ऐसा भय होने से ही वह अपने मार्ग पर ठीक तरह से चल सकता है। कहा भी है- रज्जब डर्या सो ऊबर्या, गाफिल खायी मार ।।
(क) मनुष्य जब पाप, अन्याय, अत्याचार आदि निषिद्ध आचरण करना चाहता है, तब (उनको करने की भावना मन में आते ही) भीतर से भय पैदा होता है। मनुष्य निषिद्ध आचरण तभी तक करता है, जब तक उसके मन में ‘मेरा शरीर बना रहे, मेरा मान-सम्मान होता रहे, मेरे को सांसारिक भोग-पदार्थ मिलते रहें’, इस प्रकार सांसारिक जड वस्तुओं की प्राप्ति का और उनकी रक्षा का उद्देश्य रहता है।[1] परंतु जब मनुष्य का एकमात्र उद्देश्य चिन्मय-तत्त्व को प्राप्त करने का होता हो जाता है।[2], तब उसके द्वारा अन्याय, दुराचार छूट जाते हैं और वह सर्वथा अभय हो जाता है। कारण कि उसके लक्ष्य परमात्मतत्त्व में कभी कमी नहीं आती और वह कभी नष्ट नहीं होता। (ख) जब मनुष्य के आचरण ठीक नहीं होते और वह अन्याय, अत्याचार आदि में लगा रहता है, तब उसको भय लगता है। जैसे, रावण से मनुष्य, देवता, यक्ष, राक्षस आदि सभी डरते थे, पर वही रावण जब सीता का हरण करने के लिए जाता है, तब वह डरता है। ऐसे ही कौरवों की अठारह अक्षौहिणी सेना के बाजे बजे, तो उसका पांडव सेना पर कुछ भी असर नहीं हुआ[3], पर जब पांडवों की सात अक्षौहिणी सेना के बाजे बजे, तब कौरव-सेना के हृदय विदीर्ण हो गये।[4] तात्पर्य यह कि अन्याय, अत्याचार करने वालों के हृदय कमज़ोर हो जाते हैं, इसलिए वे भयभीत होते हैं। जब मनुष्य अन्याय आदि को छोड़कर अपने आचरणों एवं भावों को शुद्ध बनाता है, तब उसका भय मिट जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् ।
शास्त्रे वादभयं गुण खलभयं काये कृतान्ताद् भयं सर्व वस्तु भयावहं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।। (भर्तृहरिवैराग्यशतक)
‘भोगों में रोग का भय, ऊँचे कुल में गिरने का भय, धन में राजा का भय, मान में दीनता का भय, बल में शत्रु का भय, रूप में बुढ़ापे का भय, शास्त्र में वाद-विवाद का भय, गुण में दुर्जन का भय और शरीर में मृत्यु का भय है। इस प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए संपूर्ण वस्तुएँ भयावह हैं, एक वैराग्य ही भय से रहित है।’ तात्पर्य यह है कि ये सांसारिक वस्तुएँ कहीं नष्ट न हो जाएँ- इसका मनुष्य को सदा भय रहता है, इसलिए वह अभय नहीं हो पाता। - ↑ उद्देश्य तो पहले से ही बना हुआ है। उसके बाद हमें मनष्य-शरीर मिला है। अतः उद्देश्य को केवल पहचानना है, बनाना नहीं है।
- ↑ गीता 1:13
- ↑ गीता 1:19
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