श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
अवतरणिका सातवें अध्याय में भगवान के द्वारा विज्ञानरहित ज्ञान कहने का जो प्रवाह चल रहा था, उसके बीच में ही अर्जुन ने आठवें अध्याय के आरंभ में सात प्रश्न कर लिए। उनमें से छः प्रश्नों का उत्तर भगवान ने संक्षेप से देकर अंतकालीन गतिविषयक सातवें प्रश्न का उत्तर विस्तार से दिया। अब सातवें अध्याय में कहने से बचे हुए उसी विज्ञानसहित ज्ञान के विषय को विलक्षण रीति से कहने के लिए भगवान नवें अध्याय का विषय आरंभ करते हैं। श्रीभगवानुवाच इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । अर्थ- श्रीभगवान बोले- यह अत्यंत गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान दोषदृष्टिरहित तेरे लिए मैं फिर अच्छी तरह से कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभ से अर्थात जन्म-मरण रूप संसार से मुक्त हो जाएगा। व्याख्या- ‘इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे’- भगवान् के मन में जिस तत्त्व को, विषय को कहने की इच्छा है, उसकी तरफ लक्ष्य कराने के लिए ही यहाँ भगवान सबसे पहले ‘इदम्’ (यह) शब्द का प्रयोग करते हैं। उस[1] तत्त्व की महिमा कहने के लिए ही उसको ‘गुह्यतमम्’ कहा है अर्थात वह तत्त्व अत्यंत गोपनीय है। इसी को आगे के श्लोक में ‘राजगुह्यम्’ और अठारहवें अध्याय के चौंसठवें श्लोक में ‘सर्वगुह्यतमम्’ कहा है। यहाँ पहले ‘गुह्यतमम्’ कहकर पीछे[2] ‘मन्मना भव......’ कहा है और अठारहवें अध्याय में पहले ‘सर्वगुह्यतमम्’ कहकर पीछे[3] ‘मन्मना भव.......’ कहा है। तात्पर्य है कि यहाँ का और यहाँ का और वहाँ का विषय एक ही है, दो नहीं। यह अत्यन्त गोपनीय तत्त्व हरेक के सामने नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इसमें भगवान ने खुद अपनी महिमा का वर्णन किया है। जिसके अंतःकरण में भगवान के प्रति थोड़ी भी दोषदृष्टि है, उसको ऐसी गोपनीय बात कही जाए, तो वह ‘भगवान आत्मश्लाघी हैं- अपनी प्रशंसा करने वाले हैं’ ऐसा उलटा अर्थ ले सकता है। इसी बात को लेकर भगवान अर्जुन के लिए ‘अनसूयवे’ विशेषण देकर कहते हैं कि भैया! तू दोष-दृष्टिरहित है, इसलिए मैं तेरे सामने अत्यंत गोपनीय बात को फिर अच्छी तरह से कहूँगा अर्थात उस तत्त्व को भी कहूँगा और उसके उपायों को भी कहूँगा- ‘प्रवक्ष्यामि’। ‘प्रवक्ष्यामि’ पद का दूसरा भाव है कि मैं उस बात को विलक्षण रीति से और साफ-साफ कहूँगा अर्थात मात्र मनुष्य मेरे शरण होने के अधिकारी हैं। चाहे कोई दुराचारी-से-दुराचारी, पापी-से-पापी क्यों न हो तथा किसी वर्ण का, किसी आश्रम का, किसी संप्रदाय का, किसी देश का, किसी वेश का, कोई भी क्यों न हो, वह भी मेरे शरण होकर मेरी प्राप्ति कर लेता है- यह बात मैं विशेषता से कहूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान के मन-बुद्धि में स्थित
- ↑ गीता 9:34 में
- ↑ गीता 18:65 में
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