श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः । अर्थ- श्रीभगवान बोले- मैं संपूर्ण लोकों का क्षय करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इन सब लोगों का संहार करने के लिए यहाँ आया हूँ। तुम्हारे प्रतिपक्ष में जो योद्धा लोग खड़े हैं, वे सब तुम्हारे युद्ध किए बिना भी नहीं रहेंगे। व्याख्या- [भगवान का विश्वरूप विचार करने पर बहुत विलक्षण मालूम देता है; क्योंकि उसको देखने में अर्जुन की दिव्यदृष्टि भी पूरी तरह से काम नहीं कर रही है और वे विश्वरूप को कठिनता से देखे जाने योग्य बताते हैं- ‘दुर्निरीक्ष्यं समन्तात्’[1] यहाँ भी वे भगवान से पूछ बैठते हैं कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं? ऐसा मालूम देता है कि अगर अर्जुन भयभीत होकर ऐसा नहीं पूछते तो भगवान और अधिक विलक्षण रूप से प्रकट होते चले जाते है। परंतु अर्जुन के बीच में ही पूछने से भगवान ने और आगे का रूप दिखाना बंद कर दिया और अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देने लगे।] ‘कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धः’- पूर्वश्लोक में अर्जुन ने पूछा था कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं- ‘आख्याहि मे को भवानुग्ररूपः’ उसके उत्तर में विराटरूप भगवान कहते हैं कि मैं संपूर्ण लोकों का क्षय (नाश) करने वाला बड़े भयंकर रूप से बढ़ा हुआ अक्षय काल हूँ। ‘लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः’- अर्जुन ने पूछा था कि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जान रहा हूँ- ‘न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्’ अर्थात आप यहाँ क्या करने आये हैं? उसके उत्तर में भगवान कहते हैं कि मैं इस समय दोनों सेनाओं का संहार करने के लिए ही यहाँ आया हूँ। ‘ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः’- तुमने पहले यह कहा था कि मैं युद्ध नहीं करूँगा- ‘न योत्स्ये’[2], तो क्या तुम्हारे युद्ध किए बिना ये प्रतिपक्षी नहीं मरेंगे? अर्थात तुम्हारे युद्ध करने और न करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। कारण कि मैं सबका संहार करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। यह बात तुमने विराटरूप में भी देख ली है कि तुम्हारे पक्ष की और विपक्ष की दोनों सेनाएँ मेरे भयंकर मुखों में प्रविष्ट हो रही हैं।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज