श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना । अर्थ- हे पृथानन्दन! अभ्यासयोग से युक्त और अन्य का चिन्तन न करने वाले चित्त से परम दिव्य पुरुष का चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़ने वाला मनुष्य) उसी को प्राप्त हो जाता है। व्याख्या- [सातवें अध्याय के अट्ठाईसवें श्लोक में जो सगुण-निराकार परमात्मा का वर्णन हुआ था, उसी को यहाँ आठवें, नवें और दसवें श्लोक में विस्तार से कहा गया है।] ‘अभ्यासयोगयुक्तेन’- इस पद में ‘अभ्यास’ और ‘योग’- ये दो शब्द आए हैं। संसार से मन हटाकर परमात्मा में बार-बार मन लगाने का नाम अभ्यास है और समता का नाम ‘योग’ है- ‘समत्वं योग उच्यते’।[1] अभ्यास में मन लगने से प्रसन्नता होती है और मन न लगने से खिन्नता होती है। यह अभ्यास तो है, पर अभ्यास योग नहीं है। अभ्यासयोग तभी होगा, जब प्रसन्नता और खिन्नता- दोनों ही न हों। अगर चित्त में प्रसन्नता और खिन्नता हो भी जाएँ, तो भी उनको महत्त्व न दे, केवल अपने लक्ष्य को ही महत्त्व दे। अपने लक्ष्य पर दृढ़ रहना भी योग है। ऐसे योग से युक्त चित्त हो। ‘चेतसा नान्यगामिना’- चित्त अन्यगामी न हो अर्थात एक परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई लक्ष्य न हो। ‘परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्’- ऐसे चित्त से परम दिव्य पुरुष का अर्थात सगुण-निराकार परमात्मा का चिन्तन करते हुए शरीर छोड़ने वाला मनुष्य उसी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। संबंध- अब भगवान ध्यान करने के लिए अत्यन्त उपयोगी सगुण-निराकार परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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