श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । अर्थ- इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है; परंतु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इंद्रियों को आकर्षित करता है (अपना मान लेता है)। व्याख्या- ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ – जिनके साथ जीव की तात्त्विक अथवा स्वरूप की एकता नहीं है, ऐसे प्रकृति और प्रकृति के कार्य मात्र का नाम ‘लोक’ है। तीन लोक, चौदह भुवनों में जीव जितनी योनियों में शरीर धारण करता है, उन संपूर्ण लोकों तथा योनियों को ‘जीवलोके’ पद के अंतर्गत समझना चाहिए। आत्मा परमात्मा का अंश है; परंतु प्रकृति के कार्य शरीर, इंद्रियाँ, प्राण, मन आदि के साथ अपनी एकता मानकर वह ‘जीव’ हो गया है- ‘जीवभूतः’। उसका यह जीवपना बनावटी है, वास्तविक नहीं। नाटक में कोई पात्र बनने की तरह यह आत्मा जीवलोक में ‘जीव’ बनता है। सातवें अध्याय में भगवान ने कहा है कि इस संपूर्ण जगत को मेरी ‘जीवभूता’ परा प्रकृति ने धारण कर रखा है[1] अर्थात अपरा प्रकृति (संसार) से वास्तविक संबंध न होने पर भी जीव ने उससे अपना संबंध मान रखा है। भगवान जीव के प्रति कितनी आत्मीयता रखते हैं कि उसको अपना ही मानते हैं- ‘ममैवांशः।’ मानते ही नहीं, प्रत्युत जानते भी हैं। उनकी यह आत्मीयता महान् हितकारी, अखंड रहने वाली और स्वतः सिद्ध है। यहाँ भगवान यह वास्तविकता प्रकट करते हैं जीव केवल मेरा ही अंश है; इसमें प्रकृति का किञ्चिन्मात्र भी अंश नहीं है। जैसे सिंह का बच्चा भेड़ों में मिलकर अपने को भेड़ मान ले, ऐसे ही जीव शरीरादि जड पदार्थों के साथ मिलकर अपनी चेतन स्वरूप को भूल जाता है। अतः इस भूल को मिटाकर उसे अपने को सदा सर्वथा चेतन स्वरूप ही अनुभव करना चाहिए. सिंह का बच्चा भेड़ों के सात मिलकर भी भेड़ नहीं हो जाता। जैसे कोई दूसरा सिंह आकर उसे बोध करा दे कि ‘देख! तेरी और मेरी आकृति, स्वभाव जाति, गर्जन आदि सब एक समान है; अतः निश्चित रूप से तू भेड़ नहीं, प्रत्युत मेरे- जैसा ही सिंह है।’ ऐसे ही भगवान यहाँ ‘मम एव’ पदों से जीव को बोध कराते हैं कि हे जीव! तू मेरा ही अंश है। प्रकृति के साथ तेरा संबंध कभी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और हो सकता भी नहीं। भगवत्प्राप्ति के सभी साधनों में ‘अहंता’ (मैं-पन) और ‘ममता’ (मेरा-पन) का परिवर्तन-रूप साधन बहुत सुगम और श्रेष्ठ है। अहंता और ममता- दोनों में साधक की जैसी मान्यता होती है, उसके अनुसार उसका भाव तथा क्रिया भी स्वतः होती है। साधक की ‘अहंता’ यह होनी चाहिए कि ‘मैं भगवान का ही हूँ’ और ‘ममता’ यह होनी चाहिए कि ‘भगवान ही मेरे हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 7:5
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