श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा । अर्थ- वेदत्रयी में कहे हुए सकाम अनुष्ठान को करने वाले और सोमरस को पीने वाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञों के द्वारा इंद्ररूप से मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्ति की प्रार्थना करते हैं, वे पुण्य के फलस्वरूप इंद्रलोक को प्राप्त करके वहाँ स्वर्ग में देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं। व्याख्या- ‘त्रैविद्याः मां सोमपाः......दिव्यान्दिवि देवभोगान्’- संसार के मनुष्य प्रायः यहाँ के भोगों में ही लगे रहते हैं। उनमें भी जो विशेष बुद्धिमान कहलाते हैं, उनके हृदय में भी उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओं का महत्त्व रहने के कारण जब वे ऋक्, साम और यजुः- इन तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्मों का तथा उनके फल का वर्णन सुनते हैं, तब वे[1] यहाँ के भोगों की इतनी परवाह न करके स्वर्ग के भोगों के लिए ललचा उठते हैं और स्वर्गप्राप्ति के लिए वेदों में कहे हुए यज्ञों के अनुष्ठान में लग जाते हैं। ऐसे मनुष्यों के लिए ही यहाँ ‘त्रैविद्याः’ पद आया है। सोमलता अथवा सोमवल्ली नाम की एक लता होती है। उसके विषय में शास्त्र में आता है कि जैसे शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन चंद्रमा की एक-एक कला बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा को कलाएँ पूर्ण हो जाती हैं और कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन एक-एक कला क्षीण होते-होते अमावस्या को कलाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं, ऐसे ही उस सोमलता का भी शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन एक-एक पत्ता निकलते-निकलते पूर्णिमा तक पंद्रह पत्ते निकल आते हैं और कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन एक-एक पत्ता गिरते-गिरते अमावस्या तक पूरे पत्ते गिर जाते हैं।[2] उस सोमलता के रस को सोमरस कहते हैं। यज्ञ करने वाले उस सोमरस को वैदिक मंत्रों के द्वारा अभिमंत्रित करके पीते हैं, इसलिए उनको ‘सोमपाः’ कहा गया है। वेदों में वर्णित यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले और वेदमंत्रों से अभिमंत्रित सोमरस को पीने वाले मनुष्यों के स्वर्ग के प्रतिबन्धक पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए उनको ‘पूतपापाः’ कहा गया है। भगवान ने पूर्वश्लोक में कहा है कि सत्-असत् सब कुछ मैं ही हूँ, तो इंद्र भी भगवत्स्वरूप ही हुए। अतः यहाँ ‘माम्’ पद से इंद्र को ही लेना चाहिए; क्योंकि सकाम यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले मनुष्य स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से स्वर्ग के अधिपति इंद्र का ही पूजन करते हैं और इंद्र से ही स्वर्ग प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से स्वर्ग के अधिपति इंद्र की स्तुति करना और उस इंद्र से स्वर्गलोक की याचना करना- इन दोनों का नाम ‘प्रार्थना’ है। वैदिक और पौराणिक विधि विधान से किए गए सकाम यज्ञों के द्वारा इंद्र का पूजन करने और प्रार्थना करने के फलस्वरूप वे लोग स्वर्ग में जाकर देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं। वे दिव्य भोग मनुष्य लोक के भोगों की अपेक्षा बहुत विलक्षण है। वहाँ वे दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- इन पाँचों विषयों का भोग (अनुभव) करते हैं। इनके सिवाय दिव्य नन्दनवन आदि में घूमना, सुख-आराम लेना, आदर-सत्कार पाना, महिमा पाना आदि भोगों को भी भोगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वेदों में आस्तिक भाव होने के कारण
- ↑ पञ्चांगयुक्पञ्चदशच्छदाढ्या सर्पाकृतिः शोणितपर्वदेशा। सा सोमवल्ली रसबन्धकर्म करोति एकादिवसोपनीता ।।
करोति सोमवृक्षोऽपि रसबन्धवधादिकम्। पूर्णिमादिवसानीतस्तयोर्वल्ली गुणाधिका ।।
कृष्ण पक्षे प्रगलति दलं प्रत्यहं चैकमेकं शुक्लेऽप्येकं प्रभवति पुनर्लम्बमाना लताः स्युः ।
तस्याः कन्द: कलयतितरां पूर्णिमायां गृहीतो बद्ध्वा सूतं कनकसहितं देहलोहं विधत्ते ।।
इयं सोमकला नाम वल्ली परमदुर्लभा। अनया बद्धसूतेन्द्रो लक्षवेधी प्रजायते। (रसेंद्रचूड़ामणि 6।6-9)
‘जिसके पंद्रह पत्ते होते हैं, जिसकी आकृति सर्प की तरह होती है, जहाँ से पत्ते निकलते हैं- वे गठिं जिसकी लाल होती है, ऐसी वह पूर्णिमा के दिन लायी हुई पञ्चांग- (मूल, डण्डी, पत्ते, फूल और फल) से युक्त सोमवल्ली पारद को वद्ध कर देती है। पूर्णिमा के दिन लाया हुआ पञ्चांग- (मूल, छाल, पत्ते, फूल और फल-) से युक्त सोमवृक्ष भी पारद को बधिना, पारद की भस्म बनाना आदि कार्य कर देता है। परंतु सोमवल्ली और सोमवृक्ष- इन दोनों में सोमवल्ली अधिक गुणों वाली है। इस सोमवल्ली का कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन एक-एक पत्ता झड़ जाता है और शुक्ल पक्ष में पुनः प्रतिदिन एक-एक पत्ता निकल आता है। इस तरह यह लता बढ़ती रहती है। पूर्णिमा के दिन इस लता का कंद निकाला जाए तो वह बहुत श्रेष्ठ होता है। धतूरे के सहित इस कन्द में बँधा हुआ पारद देह को लोहे की तरह दृढ़ बना देता है और इससे बँधा हुआ पारद लक्षवेधी हो जाता है अर्थात एक गुणा बद्ध पारद लाख गुणा लोहे को सोना बना देता है। यह सोम नाम की लता अत्यन्त ही दुर्लभ है।’
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