श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वादश अध्याय
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । अर्थ- सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित, सबका मित्र (प्रेमी) और दयालु, ममतारहित, अहंकाररहित, सुख-दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरंतर संतुष्ट, योगी, शरीर को वश में किए हुए, दृढ़ निश्चय वाला, मेरे में अर्पित मन-बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मेरे को प्रिय है। व्याख्या- ‘अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्’- अनिष्ट करने वालों के दो भेद हैं- (1) इष्ट की प्राप्ति में अर्थात धन, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि की प्राप्ति में बाधा पैदा करने वाले और (2) अनिष्ट पदार्थ, क्रिया, व्यक्ति, घटना आदि से संयोग कराने वाले। भक्त के शरीर, मन, बुद्धि, इंद्रियाँ और सिद्धांत के प्रतिकूल चाहे कोई कितना ही, किसी प्रकार का व्यवहार करे- इष्ट की प्राप्ति में बाधा डाले, किसी प्रकार की आर्थिक और शारीरिक हानि पहुँचाए, पर भक्त के हृदय में उसके प्रति कभी किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं होता। कारण कि वह प्राणिमात्र में अपने प्रभु को ही व्याप्त देखता है, ऐसी स्थिति में वह विरोध करे तो किससे करे- इतना ही नहीं; वह तो अनिष्ट करने वालों की सब क्रियाओं को भी भगवान का कृपापूर्ण मंगलमय विधान ही मानता है। प्राणिमात्र स्वरूप से भगवान का ही अंश है। अतः किसी भी प्राणी के प्रति थोड़ा भी द्वेषभाव रहना भगवान के प्रति ही द्वेष है। इसलिए किसी प्राणी के प्रति द्वेष रहते हए भगवान से अभिन्नता से रहित होने पर ही भगवान में पूर्ण प्रेम हो सकता है। इसलिए भक्त में प्राणिमात्र के प्रति द्वेष का सर्वथा अभाव होता है। ‘मैत्रः करुण एव च’[2]- भक्त के अंतःकरण में प्राणिमात्र के प्रति केवल द्वेष का अत्यंत अभाव ही नहीं होता, प्रत्युत संपूर्ण प्राणियों में भगवद्भाव होने के नाते उसका सबसे मैत्री और दया का व्यवहार भी होता है। भगवान प्राणिमात्र के सुहृद हैं- ‘सुहृदं सर्वभूतानाम’।[3] भगवान का स्वभाव भक्त में अवतरित होने के कारण भक्त भी संपूर्ण प्राणियों को सुहृद होता है- ‘सुहृदः सर्वदेहिनाम्’।[4] इसलिए भक्त का भी सभी प्राणियों के प्रति बिना किसी स्वार्थ के स्वाभाविक ही मैत्री और दया का भाव रहता है- हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानस 7।112 ख
- ↑ यहाँ भक्त को जो लक्षण बताये गए हैं, वे ज्ञानी (गुणातीत) पुरुषों के (गीता 14।22-25 में वर्णित) लक्षणों की अपेक्षा भी अधिक एवं विलक्षण है। ‘मैत्रः’ और ‘करुणः’ पद भी यहीं- भक्त के लक्षणों में ही आये हैं।
- ↑ गीता 5:29
- ↑ श्रीमद्भागवत 3।25।21
- ↑ मानस 7।47।3
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