श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- ‘आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः’- चौथे श्लोक में भगवान ने अर्जुन के प्रश्न के अनुसार मनुष्यों की निष्ठा की परीक्षा के लिए सात्त्विक, राजस और तामस- तीन तरह के यजन बताये। परंतु जिसकी श्रद्धा, रुचि, प्रियता यजन-पूजन में नहीं, उनकी निष्ठा की पहचान कैसे हो? इसके लिए बताया कि जिनकी यजन-पूजन में श्रद्धा नहीं है, ऐसे मनुष्यों को भी शरीर-निर्वाह के लिए भोजन तो करना ही पड़ता है, चाहे वे नास्तिष्क हों, चाहे आस्तिक हों, चाहे वैदिक अथवा ईसाई, पारसी, यहूदी, यवन आदि किसी संप्रदाय के हों। उन सबके लिए यहाँ ‘आहारस्त्वपि’ पद देकर कहा है कि निष्ठा की पहचान के लिए केवल यजन-पूजन ही नहीं है, प्रत्युत भोजन की रुचि से ही उनकी निष्ठा की पहचान हो जाएगी। मनुष्य का मन स्वाभाविक ही जिस भोजन में ललचाता है अर्थात जिस भोजन की बात सुनकर, उसे देखकर और उसे चखकर मन, आकृष्ट होता है, उसके अनुसार उसकी सात्त्विकी, राजसी या तामसी निष्ठा मानी जाती है। यहाँ कोई ऐसा भी कह सकता है कि सात्त्विक, राजस और तामस आहार कैसा-कैसा होता है- इसे बताने के लिए यह प्रकरण आया है। स्थूलदृष्टि से देखे पर तो ऐसा ही दीखता है; परंतु विचारपूर्वक गहराई से देखे पर यह बात दीखती नहीं। वास्तव में यहाँ आहार का वर्णन नहीं है, प्रत्युत आहारी का रुचि का वर्णन है। अतः आहारी की श्रद्धा की पहचान कैसे हो? यह बताने के लिए ही यह प्रकरण आया है।
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