श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमति न त्यजेत् ।
व्याख्या- [पूर्वश्लोक में यह कहा गया है कि स्वभाव के अनुसार शास्त्रों ने जो कर्म नियत किए हैं, उन कर्मों को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि स्वभावनियत कर्मों में भी पाप-क्रिया होती है। अगर पाप-क्रिया न होती तो ‘पाप को प्राप्त नहीं होता’ यह कहना नहीं बनता। अतः यहाँ भगवान कहते हैं कि ‘जो सहज कर्म हैं, उनमें कोई दोष भी उनका त्याग नहीं करना चाहिए; क्योंकि सब के सब कर्म धुएँ अग्नि की तरह दोष से आवृत्त हैं।’] ‘सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्’- स्वभावनियत कर्म सहज कहलाते हैं; जैसे- ब्राह्मण के शम, दम आदि; क्षत्रिय के शौर्य, तेज आदि; वैश्य के कृषि, गौरक्ष्य आदि और शूद्र के सेवा कर्म- ये सभी सहज-कर्म हैं। जन्म के बाद शास्त्रों ने पूर्व के गुण और कर्मों के अनुसार जिस वर्ण के लिए जिन कर्मों की आज्ञा दी है, वे शास्त्रनियत कर्म भी सहज कर्म कहलाते हैं; जैसे ब्राह्मण के लिए यज्ञ करना और कराना, पढ़ना और पढ़ाना आदि; क्षत्रिय के लिए यज्ञ करना, दान करना आदि; वैश्य के लिए यज्ञ करना आदि; और शूद्र के लिए सेवा। सहज कर्म में ये दोष हैं- 1. परमात्मा और परमात्मा का अंश- ये दोनों ही ‘स्व’ हैं तथा प्रकृति और प्रकृति का कार्य शरीर आदि- ये दोनों ही ‘पर’ हैं। परंतु परमात्मा का अंश स्वयं प्रकृति के वश होकर परतंत्र हो जाता है अर्थात क्रियामात्र प्रकृति में होती है और उस क्रिया को यह अपने में मान लेता है तो परतंत्र हो जाता है। यह प्रकृति के परतंत्र होना ही महान दोष है। 2. प्रत्येक कर्म में कुछ न कुछ आनुषांगिक अनिवार्य हिंसा आदि दोष होते ही हैं। 3. कोई भी कर्म किया जाए, वह कर्म किसी के अनुकूल और किसी के प्रतिकूल होता ही है। किसी के प्रतिकूल होना भी दोष है। 4. प्रमाद आदि को दोषों के कारण कर्म के करने में कमी रह जाना अथवा करने की विधि में भूल हो जाना भी दोष है।
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