श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय संबंध- ‘स्वधर्म कल्याण कारक और परधर्म भयावह है’- ऐसा जानते हुए भी मनुष्य स्वधर्म में प्रवृत्त क्यों नहीं होता? इस पर अर्जुन प्रश्न करते हैं। अर्जुन उवाच व्याख्या- ‘अथ केन प्रयुक्तोऽयं.......बलादिव नियोजितः’- यदुकुल में ‘वृष्णि’ नाम का एक वंश था। उसी अवतार लेने के भगवान ने श्रीकृष्ण का एक नाम ‘वार्ष्णेय’ है। पूर्व श्लोक में भगवान ने स्वधर्म- पालन की प्रशंसा की है। धर्म ‘वर्ण’ और ‘कुल’ का होता है; अत: अर्जुन भी कुल[1] के नाम से भगवान को सम्बोधित करके प्रश्न करते हैं। विचारशील मनुष्य पाप करना तो नहीं चाहता, पर भीतर सांसारिक भोग औ संग्रह की इच्छा रहने से वह करने योग्य कर्तव्य कर्म नहीं कर पाता और न करने योग्य पाप कर्म कर बैठता है। ‘अनिच्छन्’ पद की प्रबलता को बताने के लिये अर्जुन ‘बलादिव नियोजितः’ पदों को कहते हैं। तात्पर्य यह है कि पापवृत्ति के उत्पन्न होन पर विचारशील पुरुष उस पाप को जानता हुआ उससे सर्वथा दूर रहना चाहता है; फिर भी वह उस पाप में ऐसे लग जाता है, जैसे कोई उसको जबर्दस्ती पाप में लगा रहा हो। इससे ऐसा मालूम होता है कि पाप में लगाने वाला कोई बलवान कारण है। पापों में प्रवृत्ति का मूल कारण है- ‘काम’ अर्थात सांसारिक सुख-भोग और संग्रह की कामना। परंतु इस कारण की ओर दृष्टि न रहने से मनुष्य को यह पता नहीं चलता कि पाप कराने वाला कौन है? वह यह समझता है कि मैं तो पाप को जानता हुआ उससे निवृत्त होना चाहता हूँ, पर मेरे को कोई बलपूर्वक पाप में प्रवृत्त करता है; जैसे दुर्योधन ने कहा है- जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः । ‘मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मेरे से जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।’ दुर्योधन द्वारा कहा गया यह ‘देव’ वस्तुतः ‘काम’[3] ही है, जिससे मनुष्य विचारपूर्वक जानता हुआ भी धर्म का पालन और अधर्म का त्याग नहीं कर पाता। ‘केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति’ पदों से भी ‘अनिच्छन्’ पद की प्रबलता प्रतीत होती है। तात्पर्य यह है कि विचारवान मनुष्य स्वयं पाप करना नहीं चाहता; कोई दूसरा ही उसे जबर्दस्ती पाप में प्रवृत्त करा देता है। वह दूसरा कौन है?- यह अर्जुन का प्रश्न है। भगवान् ने अभी-अभी चौंतीसवें श्लोक में बताया है कि राग और द्वेष[4] साधक के महान शत्रु हैं अर्थात ये दोनों पाप के कारण हैं। परंतु वह बात सामान्य रीति से कहने के कारण अर्जुन उसे पकड़ नहीं सके। अतः वे प्रश्न करते हैं कि मनुष्य विचारपूर्वक पाप करना न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है? अर्जुन के प्रश्न का अभिप्राय यह है कि[5] अश्रद्धा, असूया, दुष्टचित्तता, मूढ़ता, प्रकृति[6] की परवशता, रागद्वेष, स्वधर्म में अरुचि और परधर्म में रुचि- इनमें से कौन-सा कारण है, जिससे मनुष्य विचारपूर्वक न चाहता हुआ भी पाप में प्रवृत्त होता है? इसके अलावा ईश्वर, प्रारब्ध, युग, परिस्थिति, कर्म, कुसंग, समाज, रीति-रिवाज, सरकारी कानून आदि से भी किस कारण से मनुष्य पाप में प्रवृत्त होता है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वंश
- ↑ गर्ग संहिता, अश्वमेघ. 50।36
- ↑ भोग और संग्रह की इच्छा
- ↑ जो काम और क्रोध के ही सूक्ष्म रूप हैं
- ↑ इकतीसवें से लेकर पैंतीसवें श्लोक तक देखते हैं
- ↑ स्वभाव
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