श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । इस संसार में क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी)- ये दो प्रकार के पुरुष हैं। संपूर्ण प्राणियों के शरीर नाशवान् और कूटस्थ (जीवात्मा) अविनाशी कहा जाता है। व्याख्या- ‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च’- यहाँ ‘लोके’ पद को संपूर्ण संसार का वाचक समझना चाहिए। इसी अध्याय के सातवें श्लोक में ‘जीवलोके’ पद भी इसी अर्थ में आया है। इस जगत में दो विभाग जानने में आते हैं- शरीरादि नाशवान पदार्थ (जड) और अविनाशी जीवात्मा (चेतन)। जैसे, विचार करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक तो प्रत्यक्ष दीखने वाला शरीर है और एक उसमें रहने वाला जीवात्मा है। जीवात्मा के रहने से ही प्राण कार्य करते हैं और शरीर का संचालन होता है। जीवात्मा के साथ प्राणों के निकलते ही शरीर का संचालन बंद हो जाता है और शरीर सड़ने लगता है। लोग उस शरीर को जला देते हैं। कारण कि महत्त्व नाशवान शरीर का नहीं, प्रत्युत उसमें रहने वाला अविनाशी जीवात्मा का है। पञ्चमहाभूतों- (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) से बने हुए शरीरादि जितने पदार्थ हैं, वे सभी जड और नाशवान हैं। प्राणियों के (प्रत्यक्ष देखने में आने वाले) स्थूल शरीर स्थूल समष्टि-जगत के साथ एक हैं; दस इंद्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि- इन सत्रह तत्त्वों से युक्त सूक्ष्मशरीर सूक्ष्म समष्टि- जगत के साथ एक हैं और कारण-शरीर (स्वभाव, कर्मसंस्कार, अज्ञान) कारण समष्टि-जगत्- (मूल प्रकृति) के साथ एक हैं। ये सब क्षरणशील (नाशवान) होने के कारण ‘क्षर’ नाम से कहे गये हैं। वास्तव में ‘व्यष्टि’ नाम से कोई वस्तु है ही नहीं; केवल समष्टि-संसार के थोड़े अंश की वस्तु को अपनी मानने के कारण उसको व्यष्टि कह देते हैं। संसार के साथ शरीर आदि वस्तुओं की भिन्नता केवल (राग-ममता आदि के कारण) मानी हुई है, वास्तव में है नहीं। मात्र पदार्थ और क्रियाएँ प्रकृति की ही है।[1] इसलिए स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीर की समस्त क्रियाएँ क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म और कारण समष्टि-संसार के हित के लिए ही करनी हैं, अपने लिए नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पदार्थों और क्रियाओं को संसार का मानना ‘कर्मयोग’, प्रकृति का मानना ‘ज्ञानयोग’ और भगवान का मानना ‘भक्तियोग’ है। इनको चाहे जिसका माने, पर ये अपने नहीं है- यह तो मानना ही पड़ेगा।
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