श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । व्याख्या- ‘मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यास्याध्यात्म चेतसा’- प्रायः साधक का यह विचार रहता है कि कर्मों से बंधन होता है और कर्म किये बिना कोई रह सकता नहीं; इसलिये कर्म करने से तो मैं बँध जाऊँगा ! अतः कर्म किस प्रकार करने चाहिये, जिससे कर्म बंधन कारक न हों, प्रत्युत मुक्तिदायक हो जायँ- इसके लिये भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू अध्यात्मचित्त[1] से सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को मेरे अर्पण कर दे अर्थात इनसे अपना कोई सम्बन्ध मत मान। कारण कि वास्तव में संसार मात्र की सम्पूर्ण क्रियाओं में केवल मेरी शक्ति ही काम कर रही है। शरीर, इंद्रियाँ, पदार्थ आदि भी मेरे हैं और शक्ति भी मेरी है। इसलिये ‘सब कुछ भगवान का है और भगवान अपने हैं’- गंभीरतापूर्वक ऐसा विचार करके जब तू कर्तव्य कर्म करेगा, तब वे कर्म तेरे को बाँधने वाले नहीं होंगे, प्रत्युत उद्धार करने वाले हो जायँगे। शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि पर अपना कोई अधिकार नहीं चलता- यह मनुष्य मात्र का अनुभव है। ये सब प्रकृति के हैं- ‘प्रकृतिस्थानि’ और ‘स्वयं’ परमात्मा का है- ‘ममैवांशो जीवलोके’।[2] अतः शरीरादि पदार्थों में भूल से माने हुए अपने पन को हटाकर इनको भगवान ही मानना[3] ‘अर्पण’ कहलाता है। अतः अपने विवेक को महत्त्व देकर पदार्थों और कर्मों से मूर्खतावश माने हुए सम्बन्ध का त्याग करना ही अर्पण करने का तात्पर्य है। ‘अध्यात्मचेतसा’ पद से भगवान का यह तात्पर्य है कि किसी भी मार्ग का साधक हो, उसका उद्देश्य आध्यात्मिक होना चाहिये, लौकिक नहीं। वास्तव में उद्देश्य या आवश्यकता सदैव नित्यतत्त्व की[4] होती है और कामना सदैव नित्यतत्त्व[5] की होती है। साधक में उद्देश्य होना चाहिये कामना नहीं। उद्देश्य वाला अंतःकरण विवेक-विचारयुक्त ही रहता है। दार्शनिक अथवा वैज्ञिक, किसी भी दृष्टि से यह सिद्ध नहीं हो सकता कि शरीरादि भौतिक पदार्थ अपने हैं। वास्तव में ये पदार्थ अपने और अपने लिये हैं नहीं, प्रत्युत केवल सदुपयोग करने के लिये हुए हैं। अपने न होने के कारण ही इन पर किसी का आधिपत्य नहीं चलता। संसार मात्र परमात्मा का है; परंतु जीव भूल से परमात्मा की वस्तु को अपनी मान लेता है और इसीलिये बंधन में पड़ जाता है। अतः विवेक विचार के द्वारा इस भूल को मिटाकर संपूर्ण पदार्थों और कर्मों को अध्यात्म तत्त्व[6] का स्वीकार कर लेना ही अध्यात्मचित्त के द्वारा उनका अर्पण करना है। इस श्लोक में ‘अध्यात्मचेतसा’ पद मुख्यरूप से आया है। तात्पर्य यह है कि अविवेक से ही उत्पत्ति विनाशशील शरीर[7] अपना दीखता है। यदि विवेक-विचारपूर्वक देखा जाय तो शरीर या संसार अपना नहीं दीखेगा, प्रत्युत एक अविनाशी परमात्मतत्त्व ही अपना दीखेगा। संसार को अपना देखना ही पतन है और अपना न देखना ही उत्थान है- द्वयक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम् । ‘दो अक्षरों का ‘मम’[9] मृत्यु है और तीन अक्षरों का ‘न मम’[10] अमृत- सनातन ब्रह्म है।’ भगवान ने ‘मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य’ पदों से सम्पूर्ण कर्मों को अर्पण करने की बात इसलिये कही है कि मनुष्य ने करण[11], उपकरण[12] तथा क्रियाओं को भूल से अपनी और अपने लिये मान लिया, जो कभी इसके थे नहीं, है नहीं, होंगे नहीं और हो सकते भी नहीं। उत्पत्ति-विनाश वाली वस्तुओं से अविनाशी का क्या सम्बन्ध? अतः कर्मों को चाहे संसार के अर्पण कर दे, चाहे प्रकृति के अर्पण कर दे और चाहे भगवान के अर्पण कर दे- तीनों का एक ही नतीजा होगा; क्योंकि संसार प्रकृति का कार्य है और भगवान प्रकृति के स्वामी हैं। इस दृष्टि से संसार और प्रकृति दोनों भगवान के हैं। अतः ‘मैं भगवान का हूँ और मेरी कहलाने वाली मात्र वस्तुएँ भगवान की हैं’ इस प्रकार सब कुछ भगवान के अर्पण कर देना चाहिये। ऐसा करने के बाद फिर साधक को संसार या भगवान से कुछ भी चाहना नहीं पड़ता; क्योंकि जो उसे चाहिये, उसकी व्यवस्था भगवान स्वतः करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विवेक-विचारयुक्त अंतःकरण
- ↑ गीता 15।7
- ↑ जो कि वास्तव में है
- ↑ आध्यात्मिक
- ↑ उत्पत्ति विनाशशील वस्तु
- ↑ परमात्मा
- ↑ संसार
- ↑ महा.शांति. 13।4; आश्वमेधिक. 51।29
- ↑ यह मेरा है- ऐसा भाव
- ↑ यह मेरा नहीं है- ऐसा भाव
- ↑ शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण
- ↑ कर्म करने में उपयोगी सामग्री
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