श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
अर्जुन उवाच
व्याख्या- ‘ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य सत्त्वमाहो रजस्तमः’- श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद संपूर्ण जीवों के कल्याण के लिए हैं। उन दोनों के सामने कलियुग की जनता थी; क्योंकि द्वापर युग समाप्त हो रहा था। आगे आने वाले कलियुगी जीवों की तरफ दृष्टि रहने से अर्जुन पूछते हैं कि महाराज! जिन मनुष्यों का भाव बड़ा अच्छा है, श्रद्धा भक्ति भी है, पर शास्त्रविधि को जानते नहीं।[2] यदि वे जान जाएं, तो पालन करने लग जाएं, पर उनको पता नहीं। अतः उनकी क्या स्थिति होती है? आगे आने वाली जनता में शास्त्र का ज्ञान बहुत कम रहेगा। उन्हें अच्छा सत्संग मिलना भी कठिन होगा; क्योंकि अच्छे संत-महात्मा पहले युगों में भी कम हुए हैं, फिर कलियुग में तो और भी कम होंगे। कम होने पर भी यदि भीतर चाहना हो तो उन्हें सत्संग मिल सकता है। परंतु मुश्किल यह है कि कलियुग में दंभ, पाखंड ज्यादा होने से कई दम्भी और पाखंडी पुरुष संत बन जाते हैं। अतः सच्चे संत पहचान में आने मुश्किल हैं। इस प्रकार पहले तो संत महात्मा मिलने कठिन हैं और मिल भी जाएँ तो उनमें से कौन से संत कैसे हैं- इस बात की पहचान प्रायः नहीं होती और पहचान हुए बिना उनका संग करके विशेष लाभ ले लें- ऐसी बात भी नहीं है। अतः शास्त्रविधि को भी नहीं जानते और असली संतों का संग भी नहीं मिलता, परंतु जो कुछ यजन पूजन करते हैं, श्रद्धा से करते हैं- ऐसे मनुष्यों की निष्ठा कौन सी होती है? सात्त्विकी अथवा राजसी-तामसी? ‘सत्त्वमाहो रजस्तमः’ पदों में सत्त्वगुण को दैवी संपत्ति में और रजोगुण तथा तमोगुण को आसुरी संपत्ति में ले लिया गया है। रजोगुण को आसुरी संपत्ति में लेने का कारण यह है कि रजोगुण तमोगुण के बहुत निकट है[3]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह सत्रहवाँ अध्याय सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक पर चला है। उसी को लेकर अर्जुन वहाँ आये ‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य’ (जो शास्त्रविधि का त्याग करके) की जगह यहाँ ‘ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य’ ही कहकर ‘कामकारतः’ (मनमाने ढंग से) की जगह ‘श्रद्धयान्विताः’ (श्रद्धा से) कहते हैं; ‘वर्तते’ (बर्ताव करता है) की जगह ‘यजन्ते’ (यजन करता है) कहते हैं; और ‘न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्’ (वह सिद्धि, सुख और परमगति को प्राप्त नहीं होता) की जगह ‘तेषां निष्ठा तु का कृष्णा सत्त्वमाहो रजस्तमः’ (उनकी निष्ठा कौन सी है? सात्त्विकी- दैवी संपत्ति वाली अथवा राजसी-तामसी- आसुरी संपत्ति वाली?) कहकर भगवान से प्रश्न करते हैं।
- ↑ शास्त्रविधि का त्याग तीन कारणों से होता है- (1) अज्ञता से, (2) उपेक्षा से और (3) विरोध से।
- ↑ तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण- तीनों गुणों में परस्पर दस गुना अंतर है। जैसे एक का दस गुना दस; और दस का दस गुना सौ है, उसी तरह तमोगुण (1) से दमगुना श्रेष्ठ रजोगुण (10) है और रजोगुण से दस गुना श्रेष्ठ सत्त्वगुण (100) है। तात्पर्य है कि तमोगुण और रजोगुण पास-पास में हैं, जबकि सत्त्वगुण दोनों से बहुत दूर है।
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