श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । अर्थ- जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि[1] को भक्तिपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मेरे में तल्लीन हुए अंतःकरण वाले भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक दिए हुए उपहार (भेंट) को मैं खा लेता हूँ। व्याख्या- [भगवान की अपरा प्रकृति के दो कार्य हैं- पदार्थ और क्रिया। इन दोनों के साथ अपनी एकता मानकर ही यह जीव अपने को उनका भोक्ता और मालिक मानने लग जाता है और इन पदार्थों और क्रियाओं के भोक्ता एवं मालिक भगवान हैं- इस बात को वह भूल जाता है। इस भूल को दूर करने के लिए ही भगवान यहाँ कहते हैं कि पत्र, पुष्प, फल आदि जो कुछ पदार्थ हैं और जो कुछ क्रियाएँ हैं[2], उन सब को मेरे अर्पण कर दो तो तुम सदा-सदा के लिए आफत से छूट जाओगे।[3] दूसरी बात, देवताओं के पूजन में विधि-विधान की, मंत्रों आदि की आवश्यकता है। परंतु मेरा तो जीव के साथ स्वतः- स्वाभाविक अपनेपन का संबंध है, इसलिए मेरी प्राप्ति में विधियों की मुख्यता नहीं है। जैसे, बालक माँ की गोदी में जाए तो उसके लिए किसी विधि की जरूरत नहीं है। वह तो अपनेपन के संबंध से ही माँ की गोदी में जाता है। ऐसे ही मेरी प्राप्ति के लिए विधि, मंत्र आदि की आवश्यकता नहीं है, केवल अपनेपन के दृढ़ भाव की आवश्यकता है।] ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति’- जो भक्त अनायास यथासाध्य प्राप्त पत्र (तुलसीदल आदि), पुष्प, फल, जल आदि भी प्रेमपूर्वक भगवान के अर्पण करता है, तो भगवान उसको खो जाते हैं। जैसे, द्रौपदी से पत्ता लेकर भगवान ने खा लिया और त्रिलोकी को तृप्त कर दिया। गजेंद्र ने सरोवर का एक पुष्प भगवान के अर्पण करके नमस्कार किया, तो भगवान ने गजेंद्र का उद्धार कर दिया। शबरी के दिए हुए फल पाकर भगवान इतने प्रसन्न हुए कि जहाँ कहीं भोजन करने का अवसर आया, वहाँ शबरी के फलों की प्रशंसा करते रहे[4]। रन्तिदेव ने अन्त्यजरूप से आए भगवान को जल पिलाया तो उनको भगवान के साक्षात दर्शन हो गए। जब भक्त का भगवान को देने का भाव बहुत अधिक बढ़ जाता है, तब वह अपने-आप को भूल जाता है। भगवान भी भक्त के प्रेम में इतने मस्त हो जाते हैं कि अपने-आपको भूल जाते हैं। प्रेम की अधिकता में भक्त को इसका खयाल नहीं रहता कि मैं क्या खिला रहा हूँ! जैसे, विदुरनी प्रेम के आवेश में भगवान को केलों की गिरी न देकर छिलके देती है, तो भगवान उन छिलकों को भी गिरी की तरह ही खा लेते हैं[5]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यथासाध्य प्राप्त वस्तु
- ↑ गीता 9:27
- ↑ गीता 9:28
- ↑ घर गुरु गृह प्रियसदन सासुरे, भइ जब जहँ पहुनाई। तब तहँ कहि सबरी के फलनि की, रुचि माधुरी न पाई ।। (विनय पत्रिका 164।4)
- ↑ ततवेता’ तिहुँ लोक में, भोजन कियो अपार। एक शबरी एक विदुरघर, रुच पायो दो बार ।।
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