श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पञ्चम अध्याय संबंध- अब आगे के दो श्लोकों में भगवान यह बताते हैं कि जिस तत्त्व को ज्ञानयोगी और कर्मयोगी प्राप्त करता है, उसी तत्त्व को ध्यानयोगी भी प्राप्त कर सकता है।[1] स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः । व्याख्या- ‘स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान्’- परमात्मा के सिवाय सब पदार्थ बाह्य हैं। बाह्य पदार्थों को बाहर ही छोड़ देने का तात्पर्य है कि मन से बाह्य विषयों का चिंतन न करे। बाह्य पदार्थों के संबध का त्याग कर्मयोग में सेवा के द्वारा और ज्ञानयोग में विवेक के द्वारा किया जाता है। यहाँ भगवान ध्यानयोग के द्वारा बाह्य पदार्थों से संबंध विच्छेद की बात कह रहे हैं। ध्यानयोग में एकमात्र परमात्मा का ही चिंतन होने से बाह्य पदार्थों से विमुखता हो जाती है। वास्तव में बाह्य पदार्थ बाधक नहीं है। बाधक है- इनसे रागपूर्वक माना हुआ अपना संबंध। इस माने हुए संबंध का त्याग करने में ही उपर्युक्त पदों का तात्पर्य है। ‘चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः'’- यहाँ ‘भ्रुवोः अन्तरे’ पदों से दृष्टि को दोनों भौंहों के बीच में रखना अथवा दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर रखना[2]- ये दोनों ही अर्थ लिये जा सकते हैं। ध्यानकाल में नेत्रों को सर्वथा बंद रखने से लयदोष अर्थात निद्रा आने की संभावना रहती है, और नेत्रों को सर्वथा खुला रखने से[3] विक्षेप दोष आने की संभावना रहती है। इन दोनों प्रकार के दोषों को दूर करने के लिये आधे मुँदे हुए नेत्रों की दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थापित करने के लिये कहा गया है। ‘प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ’- नासिका से बाहर निकलने वाली वायु को ‘प्राण’ और नासिका के भीतर जाने वाली वायुक को ‘अपान’ कहते हैं। प्राण वायु की गति दीर्घ और अपान वायु की गति लघु होती है। इन दोनों को सम करने के लिये पहले बायीं नासिका से अपानवायु के भीतर ले जाकर दायीं नासिका से प्राणवायु को बाहर निकाले। फिर दायीं नासिका से अपानवायु को भीतर ले जाकर बायीं नासिका से प्राणवायु को बाहर निकाले। इन सब क्रियाओं में बराबर समय लगना चाहिये। इस प्रकार लगातार अभ्यास करते रहने से प्राण और अपानवायु की गति सम, शांत और सूक्ष्म हो जाती है। जब नासिका के बाहर और भीतर तथा कंठादि देश में वायु के स्पर्श का ज्ञान न हो, तब समझना चाहिये कि प्राण-अपान की गति सम हो गयी है। इन दोनों की गति सम होने पर[4] मन से स्वाभाविक ही परमात्मा का चिंतन होने लगता है। ध्यानयोग में इस प्राणायाम की आवश्यकता होने इसका उपर्युक्त पदों में उल्लेख किया गया है। ‘यतेंद्रियमनोबुद्धिः’- प्रत्येक मनुष्य में एक तो इंद्रियों का ज्ञान रहता है और एक बुद्धि का ज्ञान। इंद्रियाँ और बुद्धि- दोनों के बीच में मन का निवास है। मनुष्य को देखना है कि उसके मन पर इंद्रियों के ज्ञान का प्रभाव है या बुद्धि के ज्ञान का प्रभाव है अथवा आंशिक रूप से दोनों के ज्ञान का प्रभाव है। इंद्रियों के ज्ञान में ‘संयोग’ का प्रभाव पड़ता है और बुद्धि के ज्ञान में ‘परिणाम’ का। जिन मनुष्यों के मन पर केवल इंद्रियों के ज्ञान का प्रभाव है, वे संयोगजन्य सुखभोग में ही लगे रहते हैं; और जिनके मन पर बुद्धि के ज्ञान का प्रभाव है, वे[5] सुखभोग का त्याग करने में समर्थ हो जाते हैं- ‘न तेषु रमते बुद्धः’।[6] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ध्यानयोग साधक को स्वतंत्रता से परमात्मा की प्राप्ति कराता है एवं कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग के साधकों द्वारा भी इसका उपयोग किया जा सकता है। जप, ध्यान, सत्संग और स्वाध्याय- ये प्रत्येक साधक के लिये उपयोगी है, और आवश्यक भी।
- ↑ गीता 6।13
- ↑ सामने दृश्य रहने से
- ↑ लक्ष्य परमात्मा रहने से
- ↑ परिणाम की ओर दृष्टि रहने से
- ↑ गीता 5।22
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