श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते । अर्थ- मैं संसार मात्र का प्रभव (मूलकारण) हूँ, और मेरे से ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात चेष्टा कर रहा है- ऐसा मेरे को मानकर मेरे में ही श्रद्धा प्रेम रखते हुए बुद्धिमान भक्त मेरा ही भजन करते हैं- सब प्रकार से मेरे ही शरण होते हैं। व्याख्या- [पूर्व श्लोक की बात ही इस श्लोक में कही गयी है। ‘अहं सर्वस्य प्रभवः’ में ‘सर्वस्य’ भगवान की विभूति है अर्थात देखने, सुनने, समझने में जो कुछ आ रहा है, वह सब-की-सब भगवान की विभूति ही है। ‘मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ ‘मतः’ भगवान का योग (प्रभाव) है, जिससे सभी विभूतियाँ प्रकट होती हैं। सातवें, आठवें और नवें अध्याय में जो कुछ कहा गया है, वह सब-का-सब इस श्लोक के पूर्वार्ध में आ गया है।] ‘अहं सर्वस्य प्रभवः’- मानस, नादज, बिंदुज, उद्भिज्ज, जरायुज, अंडज, स्वदेज अर्थात जड़-चेतन, स्थावर-जंगम यावन्मात्र जितने प्राणी पैदा होते हैं, उन सबकी उत्पत्ति के मूल में परमपिता परमेश्वर के रूप में मैं ही हूँ।[1] यहाँ ‘प्रभव’ का तात्पर्य है कि मैं सबका ‘अभिन्न-निमित्तोपादानकारण’ हूँ अर्थात स्वयं मैं ही सृष्टिरूप से प्रकट हुआ हूँ। ‘मत्तः सर्वं प्रवर्तते’- संसार में उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, पालन, संरक्षण आदि जितनी भी चेष्टाएँ होती हैं, जितने भी कार्य होते हैं, वे सब मेरे से ही होते हैं। मूल में उनको सत्ता-स्फूर्ति आदि जो कुछ मिलता है, वह सब मेरे से ही मिलता है। जैसे बिजली की शक्ति से सब कार्य होते हैं, ऐसे ही संसार में जितनी क्रियाएं होती हैं, उन सबका मूल कारण मैं ही हूँ। ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’- कहने का तात्पर्य है कि साधक की दृष्टि प्राणिमात्र के भाव, आचरण, क्रिया आदि की तरफ न जाकर उन सबके मूल में स्थित भगवान की तरफ ही जानी चाहिए। कार्य, कारण, भाव, क्रिया, वस्तु, पदार्थ, व्यक्ति आदि के मूल में जो तत्त्व है, उसकी तरफ ही भक्तों की दृष्टि रहनी चाहिए। सातवें अध्याय के सातवें तथा बारहवें श्लोक में और दसवें अध्याय के पाँचवें और इस (आठवें) श्लोक में ‘मत्तः’ पद बार-बार कहने का तात्पर्य है कि ये भाव, क्रिया, व्यक्ति आदि सब भगवान से ही पैदा होते हैं, भगवान में ही स्थित रहते हैं और भगवान में लीन हो जाते हैं। अतः तत्त्व से सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है- इस बात को जान लें अथवा मान ले, तो भगवान के साथ अविकम्प[2] योग अर्थात संबंध हो जाएगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जैसे सातवें अध्याय के छठे श्लोक में भगवान ने अपने को अपरा और परा प्रकृति का कारण बताया है और चौदहवें अध्याय के चौथे श्लोक में अपने को बीज प्रदान करने वाला पिता बताया है, ऐसे ही यहाँ भगवान ने अपने को सबका उत्पादक बताया है।
- ↑ कभी विचलित न किया जाने वाला
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