श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- पूर्व श्लोक में भगवान ने जिस समता की बात कही है, आगे के दो श्लोकों में उसी को सुनने के लिए आज्ञा देते हुए उसकी महिमा का वर्णन करते हैं। एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु । व्याख्या- ‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु’- यहाँ ‘तु’ पद प्रकरण संबंध विच्छेद करने के लिए आया है अर्थात पहले सांख्य का प्रकरण कह दिया, अब योग का प्रकरण कहते हैं। यहाँ ‘एषा’ पद पूर्व श्लोक में वर्णित समबुद्धि के लिए आया है। इस समबुद्धि का वर्णन पहले सांख्ययोग में[1] अच्छी तरह किया गया है। देह-देही का ठीक-ठीक विवेक होने पर समता में अपनी स्वतः सिद्ध स्थिति का अनुभव हो जाता है। कारण कि देह में राग रहने से ही विषमता आती है। इस प्रकरण सांख्ययोग में तो समबुद्धि का वर्णन हो चुका है। अब इसी समबुद्धि को तू कर्मयोग के विषय में सुन। ‘इमाम्’ कहने का तात्पर्य है कि अभी इस समबुद्धि को कर्मयोग के विषय में कहना है कि यह समबुद्धि कर्मयोग में कैसे प्राप्त होती है? इसका स्वरूप क्या है? इसकी महिमा क्या है? इन बातों के लिए भगवान ने इस बुद्धि को योग के विषय में सुनने के लिए कहा है। ‘बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबंध प्रहास्यसि’- अर्जुन के मन में युद्ध करने से पाप लगने की संभावना थी।[2] परंतु भगवान के मत में कर्मों में विषम बुद्धि [3] होने से ही पाप लगता है। समबुद्धि होने से पाप लगता ही नहीं। जैसे, संसार में पाप पुण्य की अनेक क्रियाएँ होती रहती हैं, पर उनमें हमें पाप-पुण्य नहीं लगते; क्योंकि उनमें हमारी समबुद्धि रहती है अर्थात उनमें हमारा कोई पक्षपात, आग्रह, राग-द्वेष नहीं रहते। ऐसे ही तू समबुद्धि से युक्त रहेगा, तो तेरे को भी ये कर्म बंधन कारक नहीं होंगे। इसी अध्याय के सातवें श्लोक में अर्जुन ने अपने कल्याण की बात पूछी थी। इसलिए भगवान कल्याण के मुख्य-मुख्य साधनों का वर्णन करते हैं। पहले भगवान ने सांख्ययोग का साधन बताकर कर्तव्य कर्म करने पर बड़ा जोर दिया कि क्षत्रिय के लिए धर्मरूप युद्ध से बढ़कर श्रेय का अन्य कोई साधन नहीं है।[4] फिर कहा कि समबुद्धि से युद्ध किया जाए तो पाप नहीं लगता।[5] अब उसी समबुद्धि को कर्मयोग के विषय में कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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