श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः । अर्थ- श्रीभगवान बोले- हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिए प्रधानता से (संक्षेप से) कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अंत नहीं है। व्याख्या- ‘हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः’- योग और विभूति कहने के लिए अर्जुन की जो प्रार्थना है, उसको ‘हन्त’ अव्यय से स्वीकार करते हुए भगवान कहते हैं कि मैं अपनी दिव्य, अलौकिक, विलक्षण विभूतियों को तेरे लिए कहूँगा।[1] ‘दिव्याः’ कहने का तात्पर्य है कि जिस किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना आदि में जो कुछ भी विशेषता दिखती है, वह वस्तुतः भगवान की ही है। इसलिए उसको भगवान की ही देखना दिव्यता है और वस्तु व्यक्ति आदि की देखना अदिव्यता अर्थात लौकिकता है। ‘प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे’- जब अर्जुन ने कहा कि भगवान! आप अपनी विभूतियों को विस्तार से, पूरी-की-पूरी कह दें, तब भगवान कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियों को संक्षेप से कहूँगा; क्योंकि मेरी विभूतियों का अंत नहीं है। पर आगे ग्यारहवें अध्याय में जब अर्जुन बड़े संकोच से कहते हैं कि मैं आपका विश्वरूप देखना चाहता हूँ; अगर मेरे द्वारा वह रूप देखा जाना शक्य है तो दिखा दीजिए, तब भगवान कहते हैं- ‘पश्य मे पार्थ रुपाणि’[2] अर्थात तू मेरे रूपों को देख ले। रूपों में कितने रुप? क्या दो-चार? नहीं-नहीं, सैकड़ों-हजारों रूपों को देख! इस प्रकार यहाँ अर्जुन की विस्तार से विभूतियाँ कहने की प्रार्थना सुनकर भगवान संक्षेप से विभूतियाँ सुनने के लिए कहते हैं और वहाँ अर्जुन की एक रूप दिखाने की प्रार्थना सुनकर भगवान सैकड़ों-हजारों रूप देखने के लिए कहते हैं। यह एक बड़े आश्चर्य की बात है कि सुनने में तो आदमी बहुत सुन सकता है, पर उतना नेत्रों से देख नहीं सकता; क्योंकि देखने की शक्ति कानों की अपेक्षा सीमित होती है।[3] फिर भी जब अर्जुन ने संपूर्ण विभूतियों को सुनने में अपनी सामर्थ्य बतायी तो भगवान ने संक्षेप से सुनने के लिए कहा; और जब अर्जुन ने एक रूप को देखने में नम्रतापूर्वक अपनी असमर्थता प्रकट की तो भगवान ने अनेक रूप से देखने के लिए कहा! इसका कारण यह है कि गीता में अर्जुन का भगवद्विषयक ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। इस दसवें अध्याय में जब भगवान ने यह कहा कि मेरी विभूतियों का अंत नहीं है, तब अर्जुन की दृष्टि भगवान की अनन्तता की तरफ चली गयी। उन्होंने समझा कि भगवान के विषय में तो मैं कुछ भी नहीं जानता; क्योंकि भगवान अनन्त हैं, असीम हैं, अपार हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ योग की बात भगवान ने आगे इकतालीसवें श्लोक में कही है
- ↑ गीता 11:5
- ↑ कान का विषय है शब्द और शब्द दो तरह का होता है- वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। कान के द्वारा शब्दों को सुनकर हमें प्रत्यक्ष का भी ज्ञान होता है और अप्रत्यक्ष (स्वर्ग, नरक आदि) का भी ज्ञान होता है। इसलिए वेदान्त-प्रक्रिया (श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि में) ‘श्रवण’ सबसे पहले आया है। ऐसे ही भक्ति में भी (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन आदि में) ‘श्रवण’ पहले आया है। शास्त्रों में जिस परमात्मतत्त्व का वर्णन किया गया है, उसका ज्ञान (परोक्ष ज्ञान) हमें कानों से ही होता है अर्थात कानों से सुनकर ही उसके अनुसार करने, मानने या जानने से हम उस परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार करते हैं। शब्द में अचिन्त्य शक्ति है- शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वाच्छब्दादेवापरोक्षधीः। प्रसुप्तः पुरुषो यद्वच्छब्देनैवावबुध्यते ।। मनुष्य सोता है तो नींद में इंद्रियाँ संकुचित होकर मन में, मन संकुचित होकर बुद्धि में और बुद्धि संकुचित होकर अज्ञान (अविद्या) में लीन हो जाती है। इस तरह यद्यपि नींद में इंद्रियाँ बहुत छिपी रहती है, तथापि सोये हुए आदमी का नाम लेकर पुकारा जाए तो वह जग जाता है। शब्द में इतनी शक्ति है कि वह अविद्या में लीन हुए को भी जगा देता है। अतः शब्द में अनन्त शक्ति है। दृष्टि तो पदार्थ तक जाकर रुक जाती है। पर शब्द केवल कान तक ही नहीं जाता, प्रत्युत स्वयं तक चला जाता है। नेत्रों में रूप पकड़ा जाता है। जैसे दर्पण में मुख देखते समय काँच के भीतर रूप चला जाता है तो उसमें मुख दिखायी देने लगता है, ऐसे ही आँख में भी एक काँच है, जिसके भीतर पदार्थ का रूप चला जाता है तो वह पदार्थ दिखाई देने लगता है। नेत्रों में एक विशेष शक्ति यह है कि वे पहले रुप को पकड़े हुए ही दूसरे रूप को देख लेते हैं, इसी कारण जब बिजली से पंखा चलता है, तब उसके तीनों पर अलग-अलग घूमने पर भी नेत्रों को (अलग-अलग पर घूमते दिखाई न देकर) एक चक्र सा दिखाई देता है। ऐसे होते हुए भी कानों में जितनी शक्ति है, उतनी नेत्रों में नहीं है। इंद्रियाँ केवल अपने-अपने विषयों को ही पकड़ सकती हैं, परमात्मतत्त्व को नहीं पकड़ सकतीं; क्योंकि परमात्मतत्त्व इंद्रियों का विषय नहीं है। परमात्मतत्त्व स्वयं का विषय है अर्थात उसका ज्ञान स्वयं से ही होता है। इसलिए अर्जुन ने इस अध्याय में कहा है कि आप स्वयं को स्वयं से ही जानते हैं- ‘स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वम्’ (गीता 10:15)। दूसरे अध्याय में भगवान ने बताया है कि मन में आयी हुई संपूर्ण कामनाओं को छोड़ने पर मनुष्य अपने से ही अपने-आप में संतुष्ट होता है- ‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः........’ (गीता 2:55)। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मतत्त्व का ज्ञान करण-निरपेक्ष है। उस ज्ञान को आँखें नहीं पकड़ सकतीं, पर कान शब्दों के द्वारा पकड़ करके स्वयं तक पहुँचा देता है।
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