श्रीमद्भगवद्गीता -रामसुखदास अध्याय 10 पृ. 735

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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
दशम अध्याय


हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ।।19।।


अर्थ- श्रीभगवान बोले- हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिए प्रधानता से (संक्षेप से) कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अंत नहीं है।

व्याख्या- ‘हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः’- योग और विभूति कहने के लिए अर्जुन की जो प्रार्थना है, उसको ‘हन्त’ अव्यय से स्वीकार करते हुए भगवान कहते हैं कि मैं अपनी दिव्य, अलौकिक, विलक्षण विभूतियों को तेरे लिए कहूँगा।[1]

‘दिव्याः’ कहने का तात्पर्य है कि जिस किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना आदि में जो कुछ भी विशेषता दिखती है, वह वस्तुतः भगवान की ही है। इसलिए उसको भगवान की ही देखना दिव्यता है और वस्तु व्यक्ति आदि की देखना अदिव्यता अर्थात लौकिकता है।

‘प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे’- जब अर्जुन ने कहा कि भगवान! आप अपनी विभूतियों को विस्तार से, पूरी-की-पूरी कह दें, तब भगवान कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियों को संक्षेप से कहूँगा; क्योंकि मेरी विभूतियों का अंत नहीं है। पर आगे ग्यारहवें अध्याय में जब अर्जुन बड़े संकोच से कहते हैं कि मैं आपका विश्वरूप देखना चाहता हूँ; अगर मेरे द्वारा वह रूप देखा जाना शक्य है तो दिखा दीजिए, तब भगवान कहते हैं- ‘पश्य मे पार्थ रुपाणि’[2] अर्थात तू मेरे रूपों को देख ले। रूपों में कितने रुप? क्या दो-चार? नहीं-नहीं, सैकड़ों-हजारों रूपों को देख! इस प्रकार यहाँ अर्जुन की विस्तार से विभूतियाँ कहने की प्रार्थना सुनकर भगवान संक्षेप से विभूतियाँ सुनने के लिए कहते हैं और वहाँ अर्जुन की एक रूप दिखाने की प्रार्थना सुनकर भगवान सैकड़ों-हजारों रूप देखने के लिए कहते हैं।

यह एक बड़े आश्चर्य की बात है कि सुनने में तो आदमी बहुत सुन सकता है, पर उतना नेत्रों से देख नहीं सकता; क्योंकि देखने की शक्ति कानों की अपेक्षा सीमित होती है।[3] फिर भी जब अर्जुन ने संपूर्ण विभूतियों को सुनने में अपनी सामर्थ्य बतायी तो भगवान ने संक्षेप से सुनने के लिए कहा; और जब अर्जुन ने एक रूप को देखने में नम्रतापूर्वक अपनी असमर्थता प्रकट की तो भगवान ने अनेक रूप से देखने के लिए कहा! इसका कारण यह है कि गीता में अर्जुन का भगवद्विषयक ज्ञान उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। इस दसवें अध्याय में जब भगवान ने यह कहा कि मेरी विभूतियों का अंत नहीं है, तब अर्जुन की दृष्टि भगवान की अनन्तता की तरफ चली गयी। उन्होंने समझा कि भगवान के विषय में तो मैं कुछ भी नहीं जानता; क्योंकि भगवान अनन्त हैं, असीम हैं, अपार हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. योग की बात भगवान ने आगे इकतालीसवें श्लोक में कही है
  2. गीता 11:5
  3. कान का विषय है शब्द और शब्द दो तरह का होता है- वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। कान के द्वारा शब्दों को सुनकर हमें प्रत्यक्ष का भी ज्ञान होता है और अप्रत्यक्ष (स्वर्ग, नरक आदि) का भी ज्ञान होता है। इसलिए वेदान्त-प्रक्रिया (श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि में) ‘श्रवण’ सबसे पहले आया है। ऐसे ही भक्ति में भी (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन आदि में) ‘श्रवण’ पहले आया है। शास्त्रों में जिस परमात्मतत्त्व का वर्णन किया गया है, उसका ज्ञान (परोक्ष ज्ञान) हमें कानों से ही होता है अर्थात कानों से सुनकर ही उसके अनुसार करने, मानने या जानने से हम उस परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार करते हैं। शब्द में अचिन्त्य शक्ति है- शब्दशक्तेरचिन्त्यत्वाच्छब्दादेवापरोक्षधीः। प्रसुप्तः पुरुषो यद्वच्छब्देनैवावबुध्यते ।। मनुष्य सोता है तो नींद में इंद्रियाँ संकुचित होकर मन में, मन संकुचित होकर बुद्धि में और बुद्धि संकुचित होकर अज्ञान (अविद्या) में लीन हो जाती है। इस तरह यद्यपि नींद में इंद्रियाँ बहुत छिपी रहती है, तथापि सोये हुए आदमी का नाम लेकर पुकारा जाए तो वह जग जाता है। शब्द में इतनी शक्ति है कि वह अविद्या में लीन हुए को भी जगा देता है। अतः शब्द में अनन्त शक्ति है। दृष्टि तो पदार्थ तक जाकर रुक जाती है। पर शब्द केवल कान तक ही नहीं जाता, प्रत्युत स्वयं तक चला जाता है। नेत्रों में रूप पकड़ा जाता है। जैसे दर्पण में मुख देखते समय काँच के भीतर रूप चला जाता है तो उसमें मुख दिखायी देने लगता है, ऐसे ही आँख में भी एक काँच है, जिसके भीतर पदार्थ का रूप चला जाता है तो वह पदार्थ दिखाई देने लगता है। नेत्रों में एक विशेष शक्ति यह है कि वे पहले रुप को पकड़े हुए ही दूसरे रूप को देख लेते हैं, इसी कारण जब बिजली से पंखा चलता है, तब उसके तीनों पर अलग-अलग घूमने पर भी नेत्रों को (अलग-अलग पर घूमते दिखाई न देकर) एक चक्र सा दिखाई देता है। ऐसे होते हुए भी कानों में जितनी शक्ति है, उतनी नेत्रों में नहीं है। इंद्रियाँ केवल अपने-अपने विषयों को ही पकड़ सकती हैं, परमात्मतत्त्व को नहीं पकड़ सकतीं; क्योंकि परमात्मतत्त्व इंद्रियों का विषय नहीं है। परमात्मतत्त्व स्वयं का विषय है अर्थात उसका ज्ञान स्वयं से ही होता है। इसलिए अर्जुन ने इस अध्याय में कहा है कि आप स्वयं को स्वयं से ही जानते हैं- ‘स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वम्’ (गीता 10:15)। दूसरे अध्याय में भगवान ने बताया है कि मन में आयी हुई संपूर्ण कामनाओं को छोड़ने पर मनुष्य अपने से ही अपने-आप में संतुष्ट होता है- ‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः........’ (गीता 2:55)। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मतत्त्व का ज्ञान करण-निरपेक्ष है। उस ज्ञान को आँखें नहीं पकड़ सकतीं, पर कान शब्दों के द्वारा पकड़ करके स्वयं तक पहुँचा देता है।

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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
श्लोक संख्या विषय पृष्ठ संख्या
प्रथम अध्याय
1-11 पाण्डव और कौरव सेना के मुख्य महारथियों के नामों का वर्णन -
12-19 दोनों पक्षों की सेनाओं के शंख वादन का वर्णन 15
20-27 अर्जुन के द्वारा सेना-निरीक्षण 27
28-47 अर्जुन के द्वारा कायरता, शोक और पश्चात्तापयुक्त वचन कहना तथा संजय द्वारा शोकाविष्ट अर्जुन की अवस्था का वर्णन 39
पहले अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 50
द्वितीय अध्याय
1-10 अर्जुन की कायरता के विषय में संजय द्वारा भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का वर्णन 1
11-30 सांख्ययोग का वर्णन 17
31-38 क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करने की आवश्यकता का प्रतिपादन 52
39-53 कर्मयोग का वर्णन 61
54-72 स्थित प्रज्ञ के लक्षणों आदि का वर्णन 81
दूसरे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 104
तृतीय अध्याय
1-8 सांख्ययोग और कर्मयोग की दृष्टि से कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 105
9-19 यक्ष और सृष्टिचक्र की परम्परा सुरक्षित रखने के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 121
20-29 लोक संग्रह के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 147
30-35 राग-द्वेषरहित होकर स्वधर्म के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने की प्रेरणा 165
36-43 पापों के कारणभूत 'काम' को मारने की प्रेरणा 189
तीसरे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 210
चतुर्थ अध्याय
1-15 कर्मयोग की परम्परा और भगवान के जन्मों तथा कर्मों की दिव्यता का वर्णन 211
16-32 कर्मों के तत्त्व का और तदनुसार यज्ञों का वर्णन 256
33-42 ज्ञानयोग और कर्मयोग की प्रशंसा तथा प्रेरणा 288
चौथे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 306
पंचम अध्याय
1-6 सांख्यायोग तथा कर्मयोग की एकता का प्रतिपादन और कर्मयोग की प्रंशसा 307
7-12 सांख्ययोग और कर्मयोग के साधन का प्रकार 322
13-26 फल सहित सांख्ययोग का विषय 338
27-29 ध्यान और भक्ति का वर्णन 365
पाँचवे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 370
षष्ठ अध्याय
1-4 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ मनुष्य के लक्षण 371
5-9 आत्मोद्धार के लिये प्रेरणा और सिद्ध कर्मयोग के लक्षण 382
10-15 आसन की विधि और फलसहित सगुण-साकार के ध्यान का वर्णन 397
16-23 नियमों का फल सहित स्वरूप के ध्यान का वर्णन 407
24-28 फलसहित निर्गुण-निराकार के ध्यान का वर्णन 422
29-32 सगुण और निर्गुण के ध्यान-योगियों का अनुभव 432
33-36 मन के विग्रह का विषय 441
37-47 योगभ्रष्ट की गति का वर्णन और भक्ति योगी की महिमा 450
छठे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 473
सप्तम अध्याय
1-7 भगवान के द्वारा समग्ररूप के वर्णन की प्रतिज्ञा करना तथा अपरा-परा प्रकतियों के संयोग से प्राणियों की उतपत्ति बताकर अपने को सबका मूल कारण बताना 474
8-12 कारण रूप से भगवान की विभूतियों का वर्णन 496
13-19 भगवान के शरण होने वालों का और शरण न होने वालों का वर्णन 508
20-23 अन्य देवताओं की उपासनाओं का फलसहित वर्णन 538
24-30 भगवान के प्रभाव को जानने वालों की निन्दा और जानने वालों की प्रशंसा तथा भगवान के समरूप का वर्णन 544
सातवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 566
अष्टम अध्याय
1-7 अर्जुन के सात प्रश्न और भगवान के द्वारा उनका उत्तर देते हुए सब के समय में अपना स्मरण करने की आज्ञा देना 567
8-16 सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार की उपासना फलसहित वर्णन 587
17-22 ब्रह्मलोक तक की अवधिका और भगवान की महत्ता तथा भक्ति का वर्णन 601
23-28 शुक्ल और कृष्ण गति का वर्णन उसको जानने वाले योगी की महिमा 609
आठवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 619
नवम अध्याय
1-6 प्रभाव सहित विज्ञान का वर्णन 621
7-10 महासर्ग और महाप्रलय का वर्णन 638
11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले एवं आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेने वालों का कथन तथा दैवी प्रकृति का आश्रय लेने वाले भक्तों के भजन का वर्णन 645
16-19 कार्य-कारण रूप से भगवत्स्वरूप विभूतियों का वर्णन 654
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फलसहित वर्णन 658
पदार्थों और क्रियाओं को भगवदर्पण करने का फल बताकर भक्ति के अधिकारियों का और भक्ति का वर्णन 669
नवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 704
दशम अध्याय
1-7 भगवान की विभूति और योग का कथन तथा उनको जानने की महिमा 705
8-11 फलसहित भगवद्भभक्ति और भगवत्कृपा का प्रभाव 719
12-18 अर्जुन के द्वारा भगवान की स्तुति और योग तथा विभूतियों को कहने के लिये प्रार्थना 728
19-42 भगवान के द्वारा अपनी विभूतियों का और योग का वर्णन 735
दसवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 769
एकादश अध्याय
1-8 विराट्‍रूप दिखाने के लिये अर्जुन की प्रार्थन और भगवान के द्वारा अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान करना 771
9-14 संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विराट्‍ रूप का वर्णन 783
15-31 अर्जुन के द्वारा विराट् रूप को देखना और उसकी स्तुति करना 789
32-35 भगवान के द्वारा अपने अत्युग्र विराट रूप का परिचय और युद्ध की आज्ञा 809
36-46 अर्जुन के द्वारा विराटरूप भगवान की स्तुति-प्रार्थना 817
47-50 भगवान के द्वारा विराटरूप के दर्शन की दुर्लभता बताना और अर्जुन को आश्वासन देना 831
51-55 भगवान के द्वारा चतुर्भुज रूप की महत्ता और उसके दर्शन का उपाय बताना 839
ग्यारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 848
द्वादश अध्याय
1-12 सगुण और निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठता का निर्णय और भगत्प्राप्ति के चार साधनों का वर्णन 850
13-20 सिद्ध भक्तों के उन्तालीस लक्षणों का वर्णन 892
बारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 918
त्रयोदश अध्याय
1-18 क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा), ज्ञान और ज्ञेय (परमात्मा) का भक्ति-सहित विवेचना 920
19-34 ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विवेचन 967
तेरहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 992
चतुर्दश अध्याय
1-4 ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति 993
5-18 सत्त्व रज और तम इन तीनों गुणों का विवेचन 999
19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय एवं गुणातीत पुरुष के लक्षण 1028
चौदहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1044
पंचदश अध्याय
1-6 संसार का वृक्ष तथा उसका छेदन करके भगवान के शरण होने का और भगवद्धाम का वर्णन 1045
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16-20 क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम का वर्णन तथा अध्याय का उपसंहार 1110
पंद्रहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1122
षोडश अध्याय
1-5 फलसहित दैवी और आसुरी सम्पत्ति का वर्णन 1123
6-8 सत्कर्मों से विमुख हुए आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों की मान्याताओं का कथन 1164
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17-20 आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के दुर्भाव और दुर्गति का वर्णन 1187
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सप्तदश अध्याय
1-6 तीन प्रकार की श्रद्धा का और आसुर निश्चय वाले मनुष्यों का वर्णन 1205
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सत्रहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1263
अष्टादश अध्याय
1-12 सन्यास के विषय में मतान्तर और कर्मयोग का वर्णन 1264
13-40 सांख्ययोग का वर्णन 1310
41-48 कर्मयोग का भक्तिसहित वर्णन 1364
49-55 सांख्ययोग का वर्णन 1408
56-66 भगवद्भभक्ति का वर्णन 1418
67-68 श्रीमद्भगवदद्गीता की महिमा 1490
अठारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1523
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागति 1524
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