श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- अर्जुन के मन में कुटुम्बियों के मरने का शोक था और गुरुजनों को मारने के पाप का भय था अर्थात यहाँ कुटुम्बियों का वियोग हो जाएगा तो उनके अभाव में दुःख पाना पड़ेगा- यह शोक था और परलोक में पाप के कारण नरक आदि का दुःख भोगना पड़ेगा- यह भय था। अतः भगवान ने अर्जुन का शोक दूर करने के लिए ग्यारहवें तीसवें श्लोक तक का प्रकरण कहा, और अब अर्जुन का भय दूर करने के लिए क्षात्रधर्म विषयक आगे का प्रकरण आरंभ करते हैं। स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकमप्तुमर्हसि । व्याख्या- [पहले दो श्लोकों में युद्ध से होने वाले लाभ का वर्णन करते हैं।] ‘स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पतुमर्हसि’- यह स्वयं परमात्मा का अंश है। जब यह शरीर के साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह ‘स्व’ को अर्थात अपने आपको जो कुछ मानता है, उसका कर्तव्य ‘स्वधर्म’ कहलाता है। जैसे, कोई अपने आपको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र मानता है, तो अपने-अपने वर्णोचित कर्तव्यों का पालन करना उसका स्वधर्म है। कोई अपने को शिक्षक या नौकर मानता है तो शिक्षक या नौकर के कर्तव्यों का पालन करना उसका स्वधर्म है। कोई अपने को किसी का पिता या किसी का पुत्र मानता है, तो पुत्र या पिता के प्रति किए जाने वाले कर्तव्यों का पालन करना उसका स्वधर्म है। यहाँ क्षत्रिय के कर्तव्य- कर्म को ‘धर्म’ नाम से कहा गया है[1]। क्षत्रिय का खास कर्तव्य कर्म है- युद्ध से विमुख न होना। अर्जुन क्षत्रिय है; अतः युद्ध करना उनका स्वधर्म है। इसलिए भगवान कहते हैं कि अगर स्वधर्म को लेकर देखा जाए तो भी क्षात्रधर्म के अनुसार तुम्हारे लिए युद्ध करना ही कर्तव्य है। अपने कर्तव्य से तुम्हें कभी विमुख नहीं होना चाहिए। ‘धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते’- धर्ममय युद्ध से बढ़कर क्षत्रिय के लिए दूसरा कोई कल्याण कारक कर्म नहीं है अर्थात क्षत्रिय के लिए क्षत्रिय के कर्तव्य का अनुष्ठान करना ही खास काम है[2]। [ऐसे ही ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र के लिए भी अपने-अपने कर्तव्य का अनुष्ठान करने के सिवाय दूसरा कोई कल्याणकारी कर्म नहीं है।] अर्जुन ने सातवें श्लोक में प्रार्थना की थी कि आप मेरे लिए निश्चित श्रेय की बात कहिए। उसके उत्तर में भगवान कहते हैं कि श्रेय[3] तो अपने धर्म का पालन करने से ही होगा। किसी भी दृष्टि से अपने धर्म का त्याग कल्याण कारक नहीं है। अतः तुम्हें अपने युद्ध रूप धर्म से विमुख नहीं होना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अठारहवें अध्याय में जहाँ (18।42-48 में) चारों वर्णों के कर्तव्य-कर्मों का वर्णन आया है, वहाँ बीच में ‘धर्म’ शब्द भी आया है- ‘श्रेयान्स्वधर्मों विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्’ (18।47) इससे ‘कर्म’ और ‘धर्म’ शब्द पर्यायवाची सिद्ध होते हैं।
- ↑ गीता 18।43
- ↑ कल्याण
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