श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय यदृच्छया चोपपत्रं स्वर्गद्वारमपावृतम् । व्याख्या- ‘यदृच्छया चोपपत्रं स्वर्गद्वारमपावृतम्’- पांडवों से जूआ खेलने में दुर्योधन ने यह शर्त रखी थी कि अगर इसमें आप हार जाएंगे, तो आपको बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना होगा। तेहरवें वर्ष के बाद आपको अपना राज्य मिल जाएगा। परंतु अज्ञातवास में अगर हम लोग आप लोगों को खोज लेंगे, तो आप लोगों को दुबारा बारह वर्ष का वनवास भोगना पड़ेगा। जुए में हार जाने पर शर्त के अनुसार पांडवों ने बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञावास भोग लिया। उसके बाद जब उन्होंने अपना राज्य मांगा, तब दुर्योधन ने कहा कि मैं बिना युद्ध किए सूई की तीखी नोक-जितनी जमीन भी नहीं दूँगा। दुर्योधन के ऐसा कहने पर भी पांडवों की ओर से बार-बार संधि का प्रस्ताव रखा गया, पर दुर्योधन ने पांडवों से संधि स्वीकार नहीं की। इसलिए भगवान अर्जुन से कहते हैं कि यह युद्ध तुम लोगों को अपने आप प्राप्त हुआ है। अपने आप प्राप्त हुए धर्ममय युद्ध में जो क्षत्रिय शूरवीरता से लड़ते हुए मरता है, उसके लिए स्वर्ग का दरवाजा खुला हुआ रहता है। ‘सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्’- ऐसा धर्ममय युद्ध जिनको प्राप्त हुआ है, वे क्षत्रिय बड़े सुखी हैं। यहाँ सुखी कहने का तात्पर्य है कि अपने कर्तव्य का पालन करने में जो सुख है, वह सुख सांसारिक भोगों को भोगने में नहीं है। सांसारिक भोगों का सुख तो पशु-पक्षियों को भी होता है। अतः जिनको कर्तव्य-पालन का अवसर प्राप्त हुआ है, उनको बड़ा भाग्यशाली मानना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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