श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय संबंध- युद्ध न करने से क्या हानि होती है- इसका आगे के चार श्लोकों में वर्णन करते हैं। अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि । व्याख्या- ‘अथ चेत्त्वमिमं.....पापमवाप्स्यसि’- यहाँ ‘अथ’ अव्यय पक्षान्तर में आया है और ‘चेत्’ अव्यय संभावना के अर्थ में आया है। इनका तात्पर्य है कि यद्यपि तू युद्ध के बिना रह नहीं सकेगा, अपने क्षात्र स्वभाव के परवश हुआ तू युद्ध करेगा ही[1], तथापि अगर ऐसा मान लें कि तू युद्ध नहीं करेगा, तो तेरे द्वारा क्षात्रधर्म का त्याग हो जाएगा। क्षात्रधर्म का त्याग होने से मुझे पाप लगेगा और तेरी कीर्ति का भी नाश होगा। आप से आप प्राप्त हुए धर्मरूप कर्तव्य का त्याग करके तू क्या करेगा? अपने धर्म का त्याग करने से तुझे परधर्म स्वीकार करना पड़ेगा, जिससे तुझे पाप लगेगा। युद्ध का त्याग। करने से दूसरे लोग ऐसा मानेंगे कि अर्जुन जैसा शूरवीर भी मरने से भयभीत हो गया ! इससे तेरी कीर्ति का नाश होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18।60
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |