श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक बताते हुए भगवान ने कहा कि क्षत्रिय के लिये युद्ध से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। अनायास प्राप्त हुआ युद्ध स्वर्ग प्राप्ति का खुला दरवाजा है। तू युद्धरूप स्वधर्म का पालन नहीं करेगा तो तुझे पाप लगेगा। यदि तू जय-पराजय, लाभ हानि और सुख-दुःख को समान करके युद्ध करेगा तो तुझे पाप नहीं लगेगा। तेरा तो कर्तव्य-कर्म करने में ही अधिकार है, फल में कभी नहीं। तू कर्मफल का हेतु भी मत बन और कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति न हो। इसलिये तू कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में सम होकर और समता में स्थित होकर कर्मों को कर; क्योंकि समता ही योग है। जो मनुष्य समबुद्धि से युक्त होकर कर्म करता है, वह जीवित-अवस्था में ही पुण्य-पाप से रहित हो जाता है। जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को और श्रुतिविप्रतिपत्ति को पार कर जायगी, तब तू योग को प्राप्त हो जायगा। ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतसूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्योगो नाम द्वितीयोध्यायः ।। 2 ।। इस प्रकार ऊँ, तत्, सत्- इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगव द्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘सांख्योग’ नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ। कर्मयोग, सांख्ययोग, भक्तियोग आदि सभी साधनों में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। सांख्य योग में इस विवेक की मुख्यता है और सांख्ययोग से ही भगवान ने अपना उपदेश आरंभ किया है; अतः इस अध्याय का नाम ‘सांख्ययोग’ रखा गया है।
इस अध्याय के बहत्तर श्लोकों में से पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ, बीसवाँ, बाईसवाँ, उन्तीसवाँ और सत्तरवाँ- ये आठ श्लोक ‘उपजाति’ छंद वाले हैं। दूसरे अध्याय में बावनवें और सड़सठवें श्लोक के प्रथम चरण में नगर प्रयुक्त होने से ‘न विपुला’; बारहवें, छब्बीसवें और बत्तीसवें श्लोक के प्रथम चरण में तथा इकसठवें और तिरसठवें श्लोक के तृतीय चरण में रगण प्रयुक्त होने से ‘र-विपुला’; छत्तीसवें और छप्पनवें श्लोक के प्रथम चरण में ‘भगण’ प्रयुक्त होने से ‘भ-विपुला’; इकहत्तरवें श्लोक के प्रथम चरण में और इकतीसवें श्लोक के तृतीय चरण में ‘मगण’ प्रयुक्त होने से ‘म-विपुला’; छियालीसवें श्लोक के प्रथम चरण में ‘सगण’ प्रयुक्त होने से ‘स-विपुला’; पैंतीसवें श्लोक के प्रथम और तृतीय चरण में ‘नगण’ प्रयुक्त होने से ‘जातिपक्ष-विपुला’ और सैंतालीसवें श्लोक के प्रथम चरण में ‘भगण’ तथा तृतीय चरण में ‘नगण’ प्रयुक्त होने से ‘संकीर्ण-विपुला’ संज्ञा वाले छंद हैं। शेष उन्चास श्लोक ठीक ‘पथ्यावक्त्र’ अनुष्टुप् छंद के लक्षणों से युक्त हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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