श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। व्याख्या- [पाँचवें अध्याय के सत्ताइसवें-अट्ठाइसवें श्लोकों में जिस ध्यानयोग का संक्षेप से वर्णन किया था, अब यहाँ उसी का विस्तार से वर्णन कर रहे हैं। ‘युज् समाधौ’ धातु से जो ‘योग’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ चित्तवृत्तियों का निरोध करना है[1], उस योग का वर्णन यहाँ दसवें श्लोक से आरंभ करते हैं।] ‘अपरिग्रहः’- चित्तवृत्तियों के निरोध रूप योग का साधन संसार मात्र से विमुख होकर और केवल परमात्मा के सम्मुख होकर किया जाता है। अतः उसके लिए पहला साधन बताते हैं- ‘अपरिग्रहः’ अर्थात अपने लिए सुखबुद्धि से कुछ भी संग्रह न करे। कारण कि अपने सुख के लिए भोग और संग्रह करने से उसमें मन का खिंचाव रहेगा, जिससे साधक का मन ध्यान में नहीं लगेगा। अतः ध्यानयोग के साधक के लिए अपरिग्रह होना जरूरी है। ‘निराशीः’[2]- पहले ‘अपरिग्रहः’ पद से बाहर के भोग-पदार्थों का त्याग बताया, अब ‘निराशीः’ पद से भीतर की भोग और संग्रह की इच्छा का त्याग करने के लिए कहते हैं। तात्पर्य यह है कि भीतर में किसी भी भोग को भोगबुद्धि से भोगने की इच्छा, कामना, आशा न रखे। कारण कि मन में उत्पत्ति विनाशशील पदार्थों का महत्त्व, आशा, कामना परमात्म प्राप्ति में महान बाधक है। अतः इसमें साधक को सावधान रहना चाहिए। ‘यतचित्तात्मा’- बाहर से अपने सुख के लिए पदार्थ और संग्रह का त्याग तथा भीतर से उनकी कामना आशा का त्याग होने पर भी अंतःकरण आदि में नया राग होने की संभावना रहती है, अतः यहाँ तीसरा साधन बताते हैं- ‘यतचित्तात्मा’ अर्थात साधक अंतःकरण सहित शरीर को वश में रखने वाला हो। इनके वश में होने पर फिर नया राग पैदा नहीं होगा। इनको वश में करने का उपाय है- कोई भी नया काम रागपूर्वक न करे। कारण कि रागपूर्वक प्रवृत्ति होने से शरीर की आराम-आलस्य में, इंद्रियों की भोगी में मन की भोगों के चिंतन में अथवा व्यर्थ चिंतन में प्रवृत्ति होती है, इसलिए अंतःकरण और शरीर को वश में करने की बात कही गयी है। ‘योगी’- जिसका ध्येय, लक्ष्य केवल परमात्मा में लगने का ही है अर्थात जो परमात्म प्राप्ति के लिए ही ध्यानयोग करने वाला है, सिद्धियों और भोगों की प्राप्ति के लिए नहीं, उसको यहाँ ‘योगी’ कहा गया है। ‘एकाकी’- ध्यानयोग का साधक अकेला हो, साथ में कोई सहायक न हो; क्योंकि दो होंगे तो बातचीत होने लग जाएगी और साथ में कोई सहायक होगा तो राग के कारण उसकी याद आती रहेगी, जिससे मन भगवान में नहीं लगेगा। ‘रहसि स्थितः’- साधक को कहाँ स्थित होना चाहिए इसके लिए बताते हैं कि वह एकांत में स्थित रहे अर्थात ऐसे स्थान में स्थित रहे, जहाँ ध्यान के विरुद्ध कोई वातावरण न हो। जैसे, नदी का किनारा हो, वन में एकांत मंदिर आदि हो अथवा घर में ही एक कमरा ऐसा हो, जिसमें केवल भजन-ध्यान किया जाए। उसमें न तो स्वयं भोजन-शयन करे और कोई दूसरा ही करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ (पातञ्जलयोगदर्शन 1।2)
- ↑ ‘आशिष्’ नाम इच्छा का है और ‘निस्’ नाम रहित होने का है; अतः ‘निराशीः’ का अर्थ हुआ- इच्छा से रहित होना।
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