श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
साधक के लिए इस बात की बड़ी आवश्यकता है कि वह ध्यान के समय तो भगवान के चिंतन में तत्परतापूर्वक लगा रहे, व्यवहार के समय भी निर्लिप्त रहते हुए भगवान का चिंतन करता रहे; क्योंकि व्यवहार के समय भगवान का चिंतन न होने से संसार में निर्लिप्तता अधिक होती है। व्यवहार के समय भगवान् का चिंतन करने से ध्यान के समय चिंतन करना सुगम होता है और ध्यान के समय ठीक तरह से चिंतन होने से व्यवहार के समय भी चिंतन होता रहता है अर्थात दोनों समय में किया गया चिंतन एक दूसरे का सहायक होता है। तात्पर्य है कि साधक का साधकपना हर समय जाग्रत रहे। वह संसार में तो भगवान को मिलाए, पर भगवान में संसार को न मिलाए अर्थात सांसारिक कार्य करते समय भी भगवत्स्मरण करता रहे। यदि ध्यान के लिए बैठते समय साधक ‘अमुक काम करना है, इतना लेना है, इतना देना है, अमुक जगह जाना है, अमुक से मिलना है’ आदि कार्यों को मन में जमा रखेगा अर्थात मन में इनका संकल्प करेगा, तो उसका मन भगवान के ध्यान में नहीं लगेगा। अतः ध्यान के लिए बैठते समय यह दृढ़ निश्चय कर ले कि चाहे जो हो जाए, गरदन भले ही कट जाए, मेरे को केवल भगवान का ध्यान ही करना है। ऐसा दृढ़ विचार होने से भगवान में मन लगाने में बड़ी सुविधा हो जाएगी। साधक की यह शिकायत रहती है कि भगवान में मन नहीं लगता, तो इसका कारण क्या है? इसका कारण यह है कि साधक संसार से संबंध तोड़कर ध्यान नहीं करता, प्रत्युत संसार से संबंध जोड़कर करता है। अतः अपने सुख, सेवा के लिए भीतर से किसी को भी अपना न माने अर्थात किसी में ममता न रखे; क्योंकि मन वहीं जाएगा, जहाँ ममता होगी। इसलिए उद्देश्य केवल परमात्मा का रहे और सबसे निर्लिप्त रहे, तो भगवान में मन लग सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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