श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् । अर्थ- हे कुन्तीनन्दन! कल्पों का क्षय होने पर संपूर्ण प्राणी मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्पों के आदि में मैं फिर उनकी रचना करता हूँ। व्याख्या- ‘सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकां कल्पक्षये’- संपूर्ण प्राणी मेरे ही अंश हैं और सदा मेरे में ही स्थित रहने वाले हैं। परंतु वे प्रकृति और प्रकृति के कार्य शरीर आदि के साथ तादात्म्य[1] करके जो कुछ भी कर्म करते हैं, उन कर्मों तथा उनके फलों के साथ उनका संबंध जुड़ता जाता है, जिससे वे बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं। जब महाप्रलय का समय आता है[2], उस समय प्रकृति के परवश हुए वे संपूर्ण प्राणी प्रकृतिजन्य संबंध को लेकर अर्थात अपने-अपने कर्मों को लेकर मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं। महासर्ग के समय प्राणियों का जो स्वभाव होता है, उसी स्वभाव को लेकर वे महाप्रलय में लीन होते हैं। ‘पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्’- महाप्रलय के समय अपने-अपने कर्मों को लेकर प्रकृति में लीन हुए प्राणियों के कर्म जब परिपक्व होकर फल देने के लिए उन्मुख हो जाते हैं, तब प्रभु के मन में ‘बहु स्यां प्रजायेय’ ऐसा संकल्प हो जाता है। यही महासर्ग का आरंभ है। सी को आठवें अध्याय के तीसरे श्लोक में कहा है- ‘भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः’ अर्थात संपूर्ण प्राणियों का जो होनापन है, उसको प्रकट करने के लिए भगवान का जो संकल्प है, यही विसर्ग (त्याग) है और यही आदिकर्म है। चौदहवें अध्याय में इसी को ‘गर्भ दधाम्यहम्’[3] और ‘अहं बीजप्रदः पिता’[4] कहा है। तात्पर्य यह हुआ कि कल्पों के आदि में अर्थात महासर्ग के आदि में ब्रह्मा जी के प्रकट होने पर मैं पुनः प्रकृति में लीन हुए, प्रकृति के परवश हुए, उन जीवों का उनके कर्मों के अनुसार उन-उन योनियों (शरीरों) के साथ विशेष संबंध करा देता हूँ- यह मेरा उनको रचना है। इसी को भगवान ने चौथे अध्याय के तेरहवें श्लोक में कहा है- ‘चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ अर्थात मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभाग पूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। ब्रह्मा जी के एक दिन का नाम ‘कल्प’ है, जो मानवीय एक हजार चतुर्युगी का होता है। इतने ही समय की ब्रह्मा जी की एक रात होती है। इस हिसाब से ब्रह्मा जी की आयु सौ वर्षों की होती है। ब्रह्मा जी की आयु समाप्त होने पर जब ब्रह्मा जी लीन हो जाते हैं, उस महाप्रलय को यहाँ ‘कल्पक्षये’ पद से कहा गया है। जब ब्रह्मा जी पुनः प्रकट होते हैं, उस महासर्ग को यहाँ ‘कल्पादौ’ पद से कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मैं-मेरेपन का संबंध
- ↑ जिसमें ब्रह्मा जी सौ वर्ष की आयु पूरी होने पर लीन हो जाते हैं
- ↑ गीता 14:3
- ↑ गीता 14:4
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