श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
दूसरी जो देखने की शक्ति है, उसको भगवान में लगाना चाहिए। तात्पर्य है कि जैसे भगवान के दिव्य अविनाशी विराटरूप में अनेक रूप हैं, अनेक आकृतियाँ हैं, अनेक तरह के दृश्य हैं, ऐसे ही यह संसार भी उस विराटरूप का ही एक अंग है और इसमें अनेक नाम, रूप, आकृति आदि के रूप में परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण हैं। इस दृष्टि से सबको परमात्मा स्वरूप देखे। इसके लिए भगवान ने ग्यारहवाँ अध्याय कहा है। अर्जुन ने भी इन दोनों दृष्टियों के लिए दो बार प्रार्थना की है। दसवें अध्याय के सत्रहवें श्लोक में अर्जुन ने कहा कि ‘हे भगवान! मैं किन-किन भावों में आपका चिन्तन करूँ?’ तो भगवान ने चिन्तन शक्ति को लगाने के लिए अपनी विभूतियों का वर्णन किया। ग्यारहवें अध्याय के आरंभ में अर्जुन ने कहा कि ‘मैं आपके रूप को देखना चाहता हूँ’ तो भगवान ने अपना विश्वरूप दिखाया और उसको देखने के लिए अर्जुन को दिव्यचक्षु दिए। तात्पर्य यह हुआ कि साधक को अपनी चिन्तन और दर्शन-शक्ति को भगवान के सिवाय दूसरी किसी भी जगह खर्च नहीं करनी चाहिए अर्थात साधक चिन्तन करे तो परमात्मा का ही चिन्तन करे और जिस किसी को देखे तो उसको परमात्म स्वरूप ही देखे।
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे
विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः ।।
इस प्रकार ऊँ, तत्, सत्- इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘विश्वरूपदर्शनयोग’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ।।
अर्जुन ने भगवान से दिव्यदृष्टि प्राप्त करके भगवान के जिस विश्वरूप के दर्शन किए थे, उसके वर्णन को पढ़-सुनकर भगवान के प्रभाव को मान लेने से भगवान के साथ योग (संबंध) का अनुभव हो जाता है। अतः ग्यारहवें अध्याय का नाम ‘विश्वरूपदर्शनयोग’ है।
|