श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
तृतीय अध्याय संबंध- पीछे के श्लोक में भगवान ने कर्म किये बिना शरीर निर्वाह भी नहीं होने की बात कही। इससे सिद्ध होता है कि कर्म करना बहुत आवश्यक है। परंतु कर्म करने से तो मनुष्य बँधता है- ‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’, तो फिर मनुष्य को बंधन से छूटने के लिये क्या करना चाहिये- इसको भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं। यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः । व्याख्या- ‘'यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र’- गीता के अनुसार कर्तव्यमात्र का नाम ‘यज्ञ’ है। ‘यज्ञ’ शब्द के अंतर्गत यज्ञ, दान, तप, होम, तीर्थ-सेवन, व्रत, वेदाध्ययन आदि समस्त शारीरिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक क्रियाएँ आ जाती हैं। कर्तव्य मानकर किये जाने वाले व्यापार, नौकरी, अध्ययन, अध्यापन आदि सब शास्त्रविहित कर्मों का नाम भी यज्ञ है। दूसरों को सुख पहुँचाने तथा उनका हित करने के लिये जो भी कर्म किये जाते हैं, वे सभी याज्ञार्थ कर्म है। याज्ञार्थ कर्म करने से आसक्ति बहुत जल्दी मिट जाती है तथा कर्मयोगी के संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं[3] अर्थात वे कर्म स्वयं तो बंधन कारक होते नहीं, प्रत्युत पूर्वसंचित कर्म समूह को भी समाप्त कर देते हैं। वास्तव में मनुष्य की स्थिति उसके उद्देश्य के अनुसार होती है, क्रिया के अनुसार नहीं। जैसे व्यापारी का प्रधान उद्देश्य धन कमाना रहता है; अतः वास्तव में उसकी स्थिति धन में ही रहती है और दुकान बंद करते ही उसकी वृत्ति धन की तरफ चली जाती है। ऐसे ही यज्ञार्थ कर्म करते समय कर्मयोगी की स्थिति अपने उद्देश्य- परमात्मा में ही रहती है और कर्म समाप्त में ही रहती है और कर्म समाप्त करते ही उसकी वृत्ति परमात्मा की तरफ चली जाती है। सभी वर्णों के लिये अलग-अलग कर्म हैं। एक वर्ण के लिये कोई कर्म स्वधर्म है तो वही दूसरे वर्ण के लिये[4] परधर्म अर्थात अन्यत्र कर्म हो जाता है; जैसे- भिक्षा से जीवन-निर्वाह करना ब्राह्मण के लिये तो स्वधर्म है, पर क्षत्रिय के लिये परधर्म है। इसी प्रकार निष्काम भाव से कर्तव्य कर्म करना मनुष्य का स्वधर्म है और सकाम भाव से कर्म करना पर धर्म है। जितने भी सकाम और निषिद्ध कर्म हैं वे सब के सब ‘अन्यत्र कर्म’ की श्रेणी में ही हैं. अपने सुख, मान, बड़ाई, आराम आदि के लिये जितने कर्म किये जायँ, वे सब के सब भी ‘अन्यत्र कर्म’ हैं[5]। अतः छोटा से छोटा तथा बड़ा से बड़ा जो भी कर्म किया जाय, उसमें साधक को सावधान रहना चाहिये कि कहीं किसी स्वार्थ की भावना से तो कर्म नहीं हो रहा है ! साधक उसी को कहते हैं, जो निरंतर सावधान रहता है। इसलिये साधक को अपनी साधना के प्रति सतर्क, जागरूक रहना ही चाहिये। ‘अन्यत्र-कर्म’ के विषय में दो गुप्त भाव-
तात्पर्य यह है कि साधक कर्म तो करे, पर उसमें स्वार्थ, कामना आदि का भाव नहीं रहना चाहिए। कर्म का निषेध नहीं है, प्रत्युत सकामभाव का निषेध है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कर्तव्यपालन
- ↑ अपने लिये किये जाने वाले
- ↑ गीता 4।23
- ↑ विहित न होने से
- ↑ अपने लिये कर्म करे से सकामभाव रहता है और सकामभाव रहने से निषिद्ध कर्म होने की पूर्ण संभावना रहती है।
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