श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत: । अर्थ- उस पराभक्ति से मेरे को, मैं जितना हूँ और जो हूँ- इसको तत्त्व से जान लेता है; मेरे को तत्त्व से जानकर फिर तत्काल मेरे में प्रविष्ट हो जाता है। व्याख्या- ‘भक्त्या मामभिजानाति’- जब परमात्मतत्त्व में आकर्षण, अनुराग हो जाता है, तब साधक स्वयं उस परमात्मा के सर्वथा समर्पित हो जाता है, उस तत्त्व से अभिन्न हो जाता है। फिर उसका अलग कोई (स्वतंत्र) अस्तित्व नहीं रहता अर्थात उसके अहंभाव का अतिसूक्ष्म अंश भी नहीं रहता। इसलिए उसको प्रेमस्वरूपा प्रेमाभक्ति प्राप्त हो जाती है। उस भक्ति से परमात्मतत्त्व का वास्तविक बोध हो जाता है। ब्रह्मभूत-अवस्था हो जाने पर संसार के संबंध का तो सर्वथा त्याग हो जाता है, पर ‘मैं ब्रह्म हूँ, मैं शांत हूँ, मैं निर्विकार हूँ,’ ऐसा सूक्ष्म अहंभाव रह जाता है। यह अहंभाव जब तक रहता है, तब तक परिच्छिन्नता और पराधीनता रहती है। कारण कि यह अहंभाव प्रकृति का कार्य है और प्रकृति ‘पर’ है; इसलिए पराधीनता रहती है। परमात्मा की तरफ आकृष्ट होने से, पराभक्ति होने से ही यह अहंभाव मिटता है।[1] इस अहंभाव के सर्वथा मिटने से ही तत्त्व का वास्तविक बोध होता है। ‘यावान्’- सातवें अध्याय के आरंभ में भगवान ने अर्जुन को ‘समग्र रूप’ सुनने की आज्ञा दी कि मेरे में जिसका मन आसक्त हो गया है, जिसको मेरा ही आश्रय है, वह अनन्यभाव से मेरे साथ दृढ़तापूर्वक संबंध रखते हुए मेरे जिस समग्ररूप को जान लेता है, उसको तुम सुनो। यही बात भगवान ने सातवें अध्याय के अंत में कही कि जरा-मरण से मुक्ति पाने के लिए जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं, वे ब्रह्म, संपूर्ण अध्यात्म और संपूर्ण कर्म को अर्थात संपूर्ण निर्गुण-विषय को जान लेते हैं और अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के सहित मुझको अर्थात संपूर्ण सगुण-विषय को जान लेते हैं। इस प्रकार निर्गुण और सगुण के सिवाय राम, कृष्ण, शिव, गणेश, शक्ति, सूर्य आदि अनेक रूपों में प्रकट होकर परमात्मा लीला करते हैं, उनको भी जान लेना- यही पराभक्ति से ‘यावान्’ अर्थात समग्ररूप को जानना है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ।। (मानस 7।49।3)
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